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Showing posts from 2017

योद्धा

निराशा के गर्त में डूबते सितारे,है गहराता हर पल ये अधियारा,  हूँ निकला रौशनी करने जगत में, लिए मैं जुगनुओं का सहारा| ना किश्ती की परवाह मुझको, ना मिलता है कोई किनारा,  हूँ लड़ रहा मैं ज्वार से, लेकर आँधियों का सहारा| एक विकराल गर्जना किये, जैसे हो पौरुष ने पुकारा,  गरल का पान करने को, जैसे नीलकण्ठ रूप हो धारा| निशा से भोर तक कि जैसे, हूँ करता निशचर सा गुजा़रा,  या कि दिनकर सा उदित होता और चमकाता जग सारा| -रजत द्विवेदी

मध्य रात्रि का चाँद....

सर्द हवाओं से घिरे बादलों के बीच, दिखा वो मध्य रात्रि का चाँद  हज़ारों सितारों के बीच चमकता,  ठंडी स्वच्छ चाँदनी देता हुआ लाखों गर्त में डूबे जुगनुओं को  जैसे किसी प्यासे को नदी का किनारा मिल गया हो| कारे कारे गगन पर जगमगाता,  दिखा वो मध्य रात्रि का चाँद  अधूरे सपनों का कारवाँ लिए,  कई टूटे दिलों में नये ख्बाव जगाता हुआ  जैसे सूखे बंजर भूमि पर किसी ने उम्मीदों के बीज बो दिए हों| घने जंगलों में अमावस की रात में उगता  दिखा वो मध्य रात्रि का चाँद  बेचैन मन वाले बदन में तंद्रालस भरता,  कुछ वक्त और ठण्ड से सिमट कर सो जाने को मजबूर करता  जैसे जंगल में जीवों पर आलस का मंतर फूँक दिया हो| नये दिन की उम्मीद जगाता,  दिखा वो मध्य रात्रि का चाँद  नयी भोर के स्वागत के लिए,  गहराते तिमिर को हर पल कमज़ोर करता हुआ  जैसे देवताओं को भोर भ्रमण का न्यौता देता हो| -रजत द्विवेदी

देखो हुआ सवेरा... 

देखो हुआ सेवरा, है सिमट रहा अंधेरा  गगन पर उड़ रहे पक्षी, हैं खोजते नया डेरा| कहीं भवरे चहकते हैं, नयी कलियाँ खिलती हैं कहीं पर नाचते मयूर, कहीं तितलियाँ उड़ती हैं| नया दिन है, नये दिन में नयी उमंगों ने है घेरा देखो हुआ सवेरा, है सिमट रहा अंधेरा| नये प्रकाश से भरकर कि अब यह शर चमकता है  तिमिर की कैद से छूटा कि दिनकर खूब हँसता है| कहीं अब मौज में बहती नदी भी मुस्कुराती है  कहीं सागर की लहरों में मछलियां गीत गाती हैं| बडे़ अभिमान से हिमालय भी ज़रा अब इतराता है  नया आलोक में उसका कि कद बढता जाता है| है चहु ओर हरियाली,खुशियों ने किया बसेरा  देखो हुआ सवेरा, है सिमट रहा अंधेरा| -रजत द्विवेदी

पथिक

पथिक, पथ पर खड़ी कठिनाइयों को झेलना तू सीख, समर सम ज़िंदगी तेरी, तू लड़कर जीतना अब सीख| न एक पल हार अब तू मान, विजय की माँग ना तू भीख,  तू चलता ही चला जा, खुद ही तू बना अपनी लीक| कि क्षण है अब दिखाने का, कि तुझमें जो़र कितना है,  कि क्षण है अब बताने का, विजय का कोष किसका है|  नहीं ये क्षण बताने का, यहाँ पर दोष किसका है,  समर को जीत ले तू अब समर संघोष होता है| भले इस सोैर मंडल सम जगत में कई सितारे हैं  कोई एकल चमकते हैं, कोई सूरज को प्यारे हैं,  कि तू टूटे हुए कोई यहाँ ध्रुव सा चमकता है सभी तारों से भी बढ़कर तेरा आलोक दिखता है| कि अब क्षण वीरता का है, ध्येय का ध्यान कर तू अब,  भूलाकर सब चिन्ताएँ, कि बस लक्ष्य साधो अब| समय का चक्र चलता है कि अब इतिहास लिख दे तू,  कि अब काल के मस्तक पर अपना नाम गढ़ दे तू| -रजत द्विवेदी

अधियारा.............

रात के अधियारे में, एक भटकती राह पर न जाने कितने भेड़िये, फिर रहे थे ताक में,  अा फसीं जब मासूम जान इक, बीच उनके जाल में,  लूट ली अस्मिता उसकी, मौज के फिराक़ में | पर पूछो तो ज़रा उस बदनसीब जान से,  क्या खोया उस रात उसने,  रूह तो काँप गई ही थी,  साँसे भी थम गई सी थी | पर और क्या हुआ कभी सोचा है??  क्या हुआ हाल उसके माँ-बाप का?  क्या हुआ हाल उसके भाई-बहनों का?  क्या हुआ हाल उसके प्रेमी का?  जो लाज गई तो क्या अब उसको निष्ठुर समाज अपनाएगा? सीता या पाँचाली जैसे या उसे भी ठुकारएगा? सच है शायद पुरुष हो कर मैं ये सब नहीं कह सकता हूँ | पर बतलाओ हैवानियत को, मैं भला कैसे सह सकता हूँ | ये कैसी मर्दाना शक्ति है, जो पल भर ही टिक सकती है?  मौज करने को आतुर हैं, पर जिम्मेदारियाँ ना ले सकती हैं?  कहने को यदि पुरुष हो कहते, तो भला कहो पुरूषार्थ है क्या?  बल से अगर प्रेम हो पाते, तो ऐसे प्रेम का अर्थ है क्या?  द्रौपदी तो बहुत यहाँ हैं, हैं बहुत दुशासन जैसे भी,  पर मैं पूछ रहा हूँ आज बता कौन है राम यहाँ?  करता ज्यादती मनुज पर, नारी का तुझको मान नहीं

एक शून्य से निकला...............

एक शून्य से निकला हूँ और एक शून्य में ढ़लता,  सूर्य की किरणों के जैसे रोज़ मैं चलता,  लिखता चला जाता गगन पर रोज़ नया सवेरा,  तिमिर को चीर कर निकला,कि अब छट गया है अंधेरा| उत्साह से भरकर सवेरा रोज़ करता हूँ,  काल के मस्तक पर अपनी राख मलता हूँ,  जन्म लेता रोज़, रोज़ फ़ना भी होता हूँ,  शुन्य से निकला, शुन्य में ही रोज़ ढ़लता हूँ| -रजत द्विवेदी

ये क्या गली है........

ये क्या गली है, ये क्या नगर है,  रात के अंधेरे में गहराता कोई कहर है| सिमटी हुई हैं सांसे, ना जाने कैसा डर है,  ना जिस्म का पता है ना जान की खबर है| कब जाने क्या हो जाये, किसको यहाँ फिकर है,  कुछ चैन से हैं सोते, कुछ नींद को तरसते| कुछ गुम हैं होश खोकर, मदमस्त हो नशे में,  कुछ हैं तडपते निस दिन, अंगार हैं बरसते | कोई नहीं सहारा कोई न हमसफर है,  है रात का अंधेरा सुनसान मंज़र है| है खौंफ मरने का, जिंदगी बेसबर है,  ये गली है दोस्तों, कैसे ये नगर है| -रजत द्विवेदी

चित्रकूट

विंध्य क्षेत्र में विस्तृत फैला, कहीं एक उपवन है, सुन्दर हरी लताओं से,भरा हुआ कानन है। कहीं डाल पर कोकिल गाती,मधुर गीत सुनाती, कहीं मयूर नाँच नाँच कर, सावन का संदेसा लाती। मधुर गंध से महक रहा, चारों ओर ये वन है , सूखी मिट्ठी पर बारिश का हुआ जैसे आगमन है। कहीं खिली हों नयी कलि,भँवरा गनगुनाता हो, या की नयी फ़सल उगाकर, कृषि मुस्काता हो। चहुँ ओर सौहार्द भरा है चहुँ ओर ख़ुशहाली है, वन में जैसे रोज़ मनाते खुशियों की दिवाली है।  संत समागम करते दीखे, वन है या कोई धाम, विचित्र भू भाग भारत का, चित्रकूट है नाम। इसी अनोखे सुन्दर वन में, कहीं एक कुटिया है, जहाँ विराजे भाई लखन संग रघुवर और सिया हैं। आलौकिक नभ में हो चमके जैसे कोई सितारा, शोभा इस कुटिया की वैसी, है चहुँ ओर उजियारा। नियति का ये खेल गज़ब है, श्री राम हैं वन में, अवध छोड़ वन वन हैं फिरते, ना जाने क्या गम है।  एक कुटिल का कपट चला और साधु बन गए भूप, पितु आज्ञा से वन वन भटके, बदल लिया रंग रूप।      सुन्दर भुजा,अलौकिक मुख है, साधु वेश है धारा, सिया लखन संग राम सुहाते, यों चित्

मेरी पहचान

हिंद महासागर में उठता,कोई भीषण ज्वार हूँ मैं शंकर के डमरू में उठता महाप्रलय हुंकार हूँ मैं गंगा की निर्मल लहरों में जैसे मौज अपार हूँ मैं   नारायण का स्वयं मैं जैसे कोई रूप विस्तार हूँ मैं   दिनकर की रेशम किरणों का नभ में फैला हार हूँ मैं चाँद का चकोर हूँ,अगनित तारों का यार हूँ मैं   तुलसी का रघुबीर,मीरा का निश्छल प्यार हूँ मैं शंकर की कोई प्रतिमा या निर्गुण शिव जग का आधार हूँ मैं रणधीर समर में अडिग खड़ा वीरता की भरमार हूँ मैं रग रग में करता जैसा पौरुष का संचार हूँ मैं नरसी भगत सा प्रेमी हूँ,भक्ति का अनुपम सार हूँ मैं  सभी संवेदनों से भरा, खुद में ही संसार हूँ मैं -रजत द्विवेदी

रंगभूमि

शोणित की अश्रु धारा को, बता कैसे मैं रोक सकूँ ? समय हूँ मैं फिर भी रोता हूँ  कभी कभी ये सोचकर, कि क्या दरकार समर की थी, जो उजाड़ चुके लाखों के घर? क्यों था असहाय खुद मैं जग में, जब हुआ महाभारत का रण ? क्यों न थम गया मैं इक पल को, जब कुरुक्षेत्र था रचा गया ? क्यों ना ठहरा एक क्षण को भी, जब जलता रहा लाख का घर ?  क्यों न मेरा रथचक्र रुका, जब लाज लुटी पांचाली की ? क्यों न साथ था राधेय के, जब रंगभूमि थी सजी हुई ? रंगभूमि - हाँ, सत्य  वह रंगभूमि ही थी, जड़ बनी जो सारे झगडे की। क्यों ना कर्ण को न्याय मिला, नियति को क्या मंज़ूर हुआ, जो रचदी खेल लहू की धाराओं की ? वो एक रंगभूमि ना थी, जहाँ किसी का हो मान घटा। इन्द्रप्रस्त का वह रंगमहल, पांचाली जब हसि सुयोधन पर , वह भी एक रंगभूमि थी, पटकथा समर की जहाँ लिखी। वह द्युत क्रीड़ा भी एक नाटक ही था, जिसने सजाई प्रतिशोध की रंगभूमि, वह कुरुक्षेत्र की रणभूमि। रंगभूमि तो वह कुरुसभा भी थी, जहाँ लाज गई एक नारी की, धिक् है ऐसे समाज को, जो रक्षा न करे एक नारी की। दुर्गा,चंडी के रूपों को  जो अबला समझने की गलती

वो आग रगों में फिर भर दो

हे रूद्रदेव हे महाकाल, हे नीलकण्ठ, हृदयविशाल, एक दान अभय का तुम कर दो, एक आग रगों में फिर भर दो| है तुम्हें मालूम सब जो आज है ये हो रहा, राष्ट्र का सम्मान, गौरव रोज़ है यूँ खो रहा| है न कोई राम अब तो जो लडे़ अभिमान से, दूर किसी कोने में छुपकर सबका पौरुष सो रहा| राष्ट्र चेतना को जगा कर, राम नाम अजर कर दो| दहक उठे शोले चिंगारी, वो आग रगों में फिर भर दो ||क|| हे आशुतोष हे विश्वनाथ, रामेश्वरम तुम बैद्यनाथ, बस इक तुम्हारी निगाह से, था हुआ काम भी भस्मसाथ | आज फिर से एक बार वो नेत्र तीसरा तुम खोलो, क्यों हुए हम असहाय यहाँ, क्या हुआ हमारे संग बोलो| ना बचा सकते लाज यहाँ, नपुंसक समाज है बना हुआ, ना लड़ सके बांकुरे बनकर, वीरों वाली अब बात कहाँ| खोलो अपना नयन प्रलय का, तेज पुंज प्रकाश कर दो, नश्वर शर में प्रखर आग भर, जीवनकीर्ती अमर कर दो ||ख|| हे ओंकार तुम वीर शंकर, नटराज हो तुम हो प्रलयंकर, भर दो रग रग वीरता,वर दो हो समर में धीरता | हम जीत सके जीवनरण को, हो अपनी जननी के सपूत| कर्मयोग ही लक्ष्य रहे, वीर पिता के कहलाये पूत| मातृभूमि हो सर्वश्रेष्ठ, राष्ट्रप्रेम हो हमें विशेष, राष्ट्रद्रो

एक सलाम है उनको भी....................

एक सलाम है उनको भी जो लड़ते रहे तूफानों से, देश प्रेम में मर मिटते, हैं अडिग खड़े चट्टानों से || १ || एक सलाम है उनको भी जो उपजे अन्न के दानों को, पर खुद भूखे हैं मर जाते, मैं करूँ नमन किसानों को || २ || एक सलाम है उनको भी जो भरे लफ़्ज़ों में आग प्रखर, हैं जान फूँकते शब्दों में, कवितायेँ जाती और निखर || ३ || एक सलाम है उनको भी जो गीत सुनाए जीवन का, मधुर प्रेम अनुराग लिए जो राह दिखाए जीने का|| ४ || एक सलाम है उनको भी गढ़े कहानी रूमानी, कहे लबों से ना कुछ भी, सब कह दें आँखें वो नूरानी || ५ || एक सलाम है उनको भी जो जिए ज़िन्दगी वीरों की, बीर बाँकुरे राम भगत आज़ाद जैसे रणधीरों की|| ६ || एक सलाम है उनको भी शेर-ए-बंगाल सुभाष था जो, गुमनामी में रहते थे, था दिया बड़ा बलिदान था जो|| ७ || एक सलाम है उनको भी उस राष्ट्रकवि दिनकर की जय, लिखी कुरुक्षेत्र जिसने, साहित्य जगत को हुआ विस्मय || ८ || एक सलाम है उनको भी जो भक्ति का देते परिचय, तुलसी,सूर,कबीर,रहीम,नानक,देवदत्त की जय|| ९ || एक सलाम है उनको भी जो सच्चे प्रेमी प्रीतम के, मीरा जैसा प्रेम करें और साथ सदा रहे प्रीतम

आज फिर पुकार सुन, राष्ट्र की गुहार सुन |

आज फिर पुकार सुन, राष्ट्र की गुहार सुन | युद्ध का संघोष है, सब दिलों में रोष है, देश है ये बट रहा, कहें किसका दोष है?  मंत्री सारे चोर हैं, संत्री घूसखोर हैं भ्रष्ट ये समाज है, मूर्ख करता राज है, त्रस्त ये धरा हुई बोझ इनका धार कर चीखती है मातृभूमि,जोर से पुकार कर, तू ज़रा पुकार सुन, मातु की पुकार सुन | आज फिर पुकार सुन, राष्ट्र की गुहार सुन | देख इस समाज को, ढोंग के रिवाज को, बेटे कर रहे निलाम जननी की लाज को, भाई भाई ना रहा, मित्र शत्रु बन चला, निज स्वार्थ हित यहाँ, छल कपट है खेलता| गीता भी रो रही, रो रहा कुरान है, कैसे हम हैं लड़ रहे, कितनी सस्ती जान है, रो रही इंसानियत, रोज़ रोज़ हारकर चीखता है मानव ये दर्द से कराहकर, अब तो पुकार सुन, राष्ट्र की गुहार सुन | तू खड़ा क्यों मौन है?क्या है मन में सोचता? है सनी लहू से धरती, क्या नहीं तू देखता? इस धरा की रक्षा हेतु, कोई भी जगा न है, झूठे वीर है यहाँ, धिक इन्हें सदा को है | देखता नहीं है क्या जो मान घर का खो रहा, देश बिक रहा मेरा, इमान सबका सो रहा | वीर बन, प्रशस्त हो, बोल अब दहाड़ कर, जय जय माँ भारती, ज़ोर से प

शांतिदूत

देखो विचारक तो ज़रा,है आज कितना शोभता। ये राज है ध्रितराष्ट्र का ,है आज सुन्दर लग रहा । मानो घिरा फूलों से हो,हो कोई बाग महक रहा। मानो चमकता हो वो नभ,सूर्य के प्रकाश सा।। १॥ क्यों ना भला हो आज शोभित,वो राज कुरु की सभा। मिलने स्वयं नारायण ही, जब दूत बनकर आगया । लेकर संदेसा मैत्री का,केशव पहुंचे थे वहाँ । अभिमान से फूला हुआ, बैठा सुयोधन था जहाँ।। २॥ बड़भागी है ये विदुर जो, आज कृष्ण मोह में आ गया। है एक प्रियतम प्रभु का,नर नारायण में समा गया। वाह रे भीष्म भाग तेरा, तू नारायण को पा गया। विदुर के संग मिलकर तू भी,नाथ कृपा को पा गया।।३॥ करते हैं अब आरम्भ वर्णन उस सुन्दर दृश्य का। जिसमें  दिखा था सब जनो रूप भीषण कृष्ण का। नाथ ने दिखला दिया था रूप वो विराट तब। मूढ़ मति सुयोधन ने चाहा उन्हें लूँ बांध जब ।।४॥ मांगने को पांडवों का हक़ थे केशव आ गए। शांतिदूत बनकर सभी से शान्ति-संधि चाहते। मांगते बस पांच गाँव,हित सभी का हैं चाहते। पांडवों की ओर से,थे मित्रता ही मांगते।। ५॥ पर मति से मूढ़ वो सुयोधन था खड़ा हुआ। चूर था  घमंड में, हठ पर था अड़ा हुआ। बोलता न दूंगा मैं तो एक पग भी

वीरगति

मैं समय हूँ रुक सा गया  आज ज़मी ठहरी सी है  ये कुरुक्षेत्र की रणभूमि  क्यों आज रक्क्त सनी सी है ? ये इक सन्नाटा छाया है ।  पता नही चलता कुछ है, ये शाम भला क्यों मौन हुई ? क्यों दिनकर भी है रोता यहाँ ? लगता है कोई महावीर  है वीरगति को प्राप्त हुआ।  देखो तो इस खेमे को जो आज मधुर सुख पाते हैं ।  कौरव पापी सारे ये,किसी विजय गीत को  गाते हैं। कृपा,द्रोण,दुर्योधन सब एक समान ही दीखे हैं ।  अधर्मी टोला इन सबका, कोई कपट तो खेले है। जयद्रत की ये हँसी मुझे बहुत विचलित कर रही है अब।  मैं स्वयं 'काल होकर भी, पूंछता हूँ की हुआ क्या कब? असल बात मैं जानू हूँ पर कैसे कह दूँ तुम सब से ? जो हुआ आज है अधर्म यहाँ,उसे बताऊँ मैं कैसे ? कैसे कहूँ की मासूम जान इक आज यहाँ है छीनी गई ।  कैसे इक वीर के रक्क्त से ये कुरुभूमि  है भींज गई। क्षमा करो हे अभिमन्यु ये काल स्वयं शर्मिंदा है।  तुझे छल से मारने वाले ये क्रूर कौरव ज़िंदा हैं ।  त्रिकाल समय मैं स्वयं आज हूँ स्तब्द रहा तुझे देख। सात सात ने वार किया, जब था तू निर्बल,अकेला एक। हाय! कैसा ये भर चढ़ा