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Showing posts from July, 2019

करुणा..

नयन सेज पर उभरे आंसू, भींज गई है हिय की भूमि। मृदुभावों का बादल आया, बरस रही करुणा की बूंदे। निर्मोही मन के प्रदेश में, आज प्रेम का सावन आया। दयाहीन को दया मिली है, मृतकों ने नया जीवन पाया। कौन मधुरता भरा लेप यह आज मन पर लगाता है। घृणा से पीड़ित इस तन को जो शीतलता पहुंचाता है। कौन देवदूत उतरा है आज हमारे आंगन में? जिसने प्रेम सुधा बरसाई मरुभूमि से इस तन में? कौन भगीरथ आज पुनः जग के कल्याण हेतु आया। जिसने इस बंजर भूमि पर करुण गंगा को बहाया? - रजत द्विवेदी

राम कहां है?

कहां और अब राम वनों में रह रहकर पलता है, माता और पिता की इच्छा का जो पालन करता है? नाम भले ही राम धरा तो क्या गुण भी अपनाए हैं? राम नाम का चोगा ओढ़े बस पाखंड दिखाए हैं। कहां आज कोई भाई अब भाई पर स्नेह बरसाता है, अपने सहोदर से ही क्यों जाने वो घृणा दिखाता है। हाय राम! ये किस समाज में आज तुम्हें भजते हैं सब? घर को तोड़ मकान बनाए, "राम" उसी पर लिखते सब। ऐसे ही गर चलता रहा तो एक दिन वो भी आयेगा, भाई से भाई का रिश्ता बस व्यापार रह जायेगा। राम अपने नाम को बचा लो धरती पर उपकार करो। ऐसे संबंधों से बचाने फिर से मनुष्य अवतार धरो। -रजत द्विवेदी

पशुता

जड़ चेतन में भेद नहीं अब, दोनों दिखते एक समान। शुरू हो गया पतन जगत का, हो कैसे इसका उत्थान? जड़ ज्यों बिन चेतना के मूड़ मति होता जग में, अब सचेत मानव भी वैसा ही होता जा रहा जग में। सविवेक को त्याग चुका नर, औरों के दम पर चलता है। स्वयं आंक ना सकता सच को, झूठो हामी भरता है। कठपुतली बन गया समाज का, रोज़ नचाया जाता है। कितना विवश हो चुका है वह ये भी समझ न पाता है। हे विधाता, क्यों आख़िर तेरा नर है लाचार यहां? पग में बांध लिए हैं लोहे, अब जाए तो जाए कहां? पशु और जड़ की तरह ही मानव भी मतिहीन हुआ। बुद्धि,बल का स्वामी मानव आज पशुता में लीन हुआ। सृष्टि के आरम्भ मात्र में बस मानव को ज्ञान मिला। चिंतन, मनन, वाचन की शक्ति और स्वाभिमान मिला। मगर आज वह अन्य पशुओं की भाती क्यों हो रहा है? -रजत द्विवेदी

विश्वबंधु

मैं शाश्वत रूप शूरता का, जग को ये दान करता हूं। जिनमें ना हो कुछ बल उनको अग्नि प्रदान करता हूं। मेरी ही दिव्य ज्योतियों से ये वन्य कुसुम खिलते हैं। धरती पर श्वास बहा करती, जीवन सबके चलते हैं। मैंने ही तो सारे जग को जीवन जीना सिखलाया। "वसुधैव कुटुंबकम्" का मैंने प्रचार फैलाया। पश्चिम को पूरब से जोड़ा, पृथ्वी को एक किया है। "हिन्दू" क्या होता है सच्चा, जग ने तब बोध किया है। जब विश्व खड़ा था महायुद्ध की भीषण अभिलाषा से। मैंने दिखलाया था भारत का मुख उन्हें बड़ी आशा से। जो देश सभी उस समय धर्म के नाम पर ही लड़ते थे। रंग, जात और मूल से ही जग को बांटा करते थे। उनको मैंने ही "विश्व बंधुत्व" का आयाम दिया था। भारत को "विश्व गुरु" का ही मैंने तब नाम दिया था। मेरे "हिन्दू" होने पर मैंने, खुद को अभिमान दिया था। "हिंदुत्व मात्र एक धर्म नहीं"- जग को पैग़ाम दिया था। हिंदुत्व स्वयं में धर्म नहीं, जीवन जीने की शैली है। पर हाय! आज इस राजतंत्र में क्यों इतनी ये मैली है? हिन्दू की असल पहचान जो थी, उसको ये सत्ता खा बैठी। नफ़र