मैं शाश्वत रूप शूरता का, जग को ये दान करता हूं।
जिनमें ना हो कुछ बल उनको अग्नि प्रदान करता हूं।
मेरी ही दिव्य ज्योतियों से ये वन्य कुसुम खिलते हैं।
धरती पर श्वास बहा करती, जीवन सबके चलते हैं।
मैंने ही तो सारे जग को जीवन जीना सिखलाया।
"वसुधैव कुटुंबकम्" का मैंने प्रचार फैलाया।
पश्चिम को पूरब से जोड़ा, पृथ्वी को एक किया है।
"हिन्दू" क्या होता है सच्चा, जग ने तब बोध किया है।
जब विश्व खड़ा था महायुद्ध की भीषण अभिलाषा से।
मैंने दिखलाया था भारत का मुख उन्हें बड़ी आशा से।
जो देश सभी उस समय धर्म के नाम पर ही लड़ते थे।
रंग, जात और मूल से ही जग को बांटा करते थे।
उनको मैंने ही "विश्व बंधुत्व" का आयाम दिया था।
भारत को "विश्व गुरु" का ही मैंने तब नाम दिया था।
मेरे "हिन्दू" होने पर मैंने, खुद को अभिमान दिया था।
"हिंदुत्व मात्र एक धर्म नहीं"- जग को पैग़ाम दिया था।
हिंदुत्व स्वयं में धर्म नहीं, जीवन जीने की शैली है।
पर हाय! आज इस राजतंत्र में क्यों इतनी ये मैली है?
हिन्दू की असल पहचान जो थी, उसको ये सत्ता खा बैठी।
नफ़रत के बीज भरे मन में, घिन के बबूल उगा बैठी।
पर जो भी जग में प्रेम, न्याय का परचम लिए चलता है।
हिन्दू है सच्चा वही मनुज, परहित में जो मरता है।
वो शाश्वत, निश्छल, प्रेमहृदयी, वो वीर व्रती, अभिमानी।
औरों को देता दान अमर, है प्रेमनिधि का स्वामी।
- रजत द्विवेदी
जिनमें ना हो कुछ बल उनको अग्नि प्रदान करता हूं।
मेरी ही दिव्य ज्योतियों से ये वन्य कुसुम खिलते हैं।
धरती पर श्वास बहा करती, जीवन सबके चलते हैं।
मैंने ही तो सारे जग को जीवन जीना सिखलाया।
"वसुधैव कुटुंबकम्" का मैंने प्रचार फैलाया।
पश्चिम को पूरब से जोड़ा, पृथ्वी को एक किया है।
"हिन्दू" क्या होता है सच्चा, जग ने तब बोध किया है।
जब विश्व खड़ा था महायुद्ध की भीषण अभिलाषा से।
मैंने दिखलाया था भारत का मुख उन्हें बड़ी आशा से।
जो देश सभी उस समय धर्म के नाम पर ही लड़ते थे।
रंग, जात और मूल से ही जग को बांटा करते थे।
उनको मैंने ही "विश्व बंधुत्व" का आयाम दिया था।
भारत को "विश्व गुरु" का ही मैंने तब नाम दिया था।
मेरे "हिन्दू" होने पर मैंने, खुद को अभिमान दिया था।
"हिंदुत्व मात्र एक धर्म नहीं"- जग को पैग़ाम दिया था।
हिंदुत्व स्वयं में धर्म नहीं, जीवन जीने की शैली है।
पर हाय! आज इस राजतंत्र में क्यों इतनी ये मैली है?
हिन्दू की असल पहचान जो थी, उसको ये सत्ता खा बैठी।
नफ़रत के बीज भरे मन में, घिन के बबूल उगा बैठी।
पर जो भी जग में प्रेम, न्याय का परचम लिए चलता है।
हिन्दू है सच्चा वही मनुज, परहित में जो मरता है।
वो शाश्वत, निश्छल, प्रेमहृदयी, वो वीर व्रती, अभिमानी।
औरों को देता दान अमर, है प्रेमनिधि का स्वामी।
- रजत द्विवेदी
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