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Showing posts from July, 2018

ओ हिन्द के सिपाही.....

ओ हिन्द के सिपाही किस ओर जा रहा है?  है राह कौन सी तेरी? क्या छोड़ जा रहा है?  देखो पड़ा है जग ये असमंजस के भँवर में  थक हार कर समर से हैं वीर बैठे घर में| कोई नहीं है दिखता शमशीर लिए रण में  सब दिख रहे यहाँ है ज़ंजीरों से बँधे घर में| ओ हिन्द के सिपाही क्या तू भी है उनमे से?  बैठे हुए हैं किनारे जो डरे, सहमे से| ओ हिन्द के सिपाही किस ओर तेरा घर है?  है राह कौन सी तेरी? कौन सा तेरा नगर है?  क्या उस नगर में अब भी हैं गीत वीर गाते  शूरता, धीरता की हैं धुन अब भी सुनाते?  क्या अब भी कोई माता सुत दान देती है मातृभूमि हेतु शूरों का वरदान देती है?  क्या अब भी नस नस में बहती लहू सी ज्वाला?  क्या अब भी पीते हो तुम वीर विष का प्याला?  ओ हिन्द के सिपाही किस का तिलक करूँ मैं?  किस वीरव्रती के सर अब राख मलूँ मैं?  ओ हिन्द के सिपाही कोई तो बता ठिकाना  है जहाँ बहती कलकल अविरल लहू की धारा| जहाँ आज भी लहू से सब कुमकुम लगाया करते,  परहित धर्म निभाने निज रक्त बहाया करते| रण में लिए खड्ग फिर तांडव मचाया करते,  रिपु नाश कर विजय का, फिर गान गाया करते| ओ हिन्द के सिपाही है कहाँ जमघ

आज़ादी की पहचान....

बँधी हुई ज़ंजीरों में भी गर मनमौजी मदमस्त रहे,  काटों से घिरकर भी जब गुलदाव्दी खिलता रहे,  और जब जब अँधियारे में बैठा मनुज ले प्रकाश को जान,  सच्चे शब्दों में आज़ादी की है यही असल पहचान| खींची हुई लकीरों को भी लाँघ जब कोई भरे उड़ान,  चट्टानों के भीतर से भी जो खोज़ सके राहें अंजान,  और कभी जब क्षीण शरों में भरे पौरूष का  अभिमान,  सच्चे शब्दों में आज़ादी की है यही असल पहचान| नित नित नए ज्वार से लड़कर भी तर जाती गर केवट की नाँव,  शहर के शोर शराबे में भी यदि कोई ले सके राम का नाम,  और यदि मूर्खों के बीच भी जो गाये अमर गीता का ज्ञान,  सच्चे शब्दों में आज़ादी की है यही असल पहचान| -रजत द्विवेदी 

दिनकर जी का संदेश...

इमारत ढह रही है देखो सियासी फेरबों की,  जनता की पलकों पर फिर एक नई रौशनी आती है,  सिंहासन खाली करो, देखो जनता आती है| बहुत हो गया, बहुत दाव पेज खेल चुके सत्ता का,  बहुत मूर्ख बनाया तुमने मासूम देश की जनता का,  देखो उधर शहर में जल उठी आज फिर एक चिंगारी,  सिंहासन खाली करो, देखो जनता आती है| सस्ते हथकंडे बहुत आज़माँ लिए तुमने मज़हबी नारों के,  खण्ड खण्ड में बाँट दिया है, सियासत की तलवारों ने,  मगर सियासत में दम कहाँ जो हमें कभी तोड़ पाए,  देखो सब ने इंकलाब की अपने मन में ठानी है,  सिंहासन खाली करो, देखो जनता आती है| आलोचनाएँ बहुत हो गई, अब नई जागृति की बारी है,  मुल्क के नसीब ने देखो फिर आज पलटी मारी है,  हर ओर उठा है शोर क्रान्ति का, सबने की तैयारी है,  सिंहासन खाली करो, देखो जनता आती है| और नहीं अब और नहीं, कोई छल कपट और नहीं,  यह क्षण पुन:जागृति का, आलस्य का अब दौर नहीं,  देखो हवाओं में फिर से नई लहर एक आती है,  सिंहासन खाली करो, देखो जनता आती है|        -रजत द्विवेदी 

संघोष...

लहू की धार से बहकर कलम की स्याह निकली आज,  कि रग रग माँग उठता है गूँजकर आज फिर स्वराज| कोलाहल आज मचा फिर नगर और चौबैरों में,  उठी है फूल आज फिर से नसे भरकर नये अंगारों से| कलम फिर आज जैसे दिनकर के हों शब्द लिए  या कि बिस्मिल और आज़ाद के क्रान्ति गीतों से भरी| या कि छिड़क दिया किसी ने वीर भगत का हम पर इश्क,  या कि फिर से स्मरण है आया शेर-ए-हिन्द वीर सुभाष| या कि गीत गज़ल बन गई किसी कबीर की वाणी से,  या कि तुलसी ने है छेड़े गीत राम कहानी के| उत्साहित है आज रोम रोम फिर सृजन संघोष नया,  ज़रे ज़रे में फिर भरा हुआ है आज विजय का जोश नया| -रजत द्विवेदी 

चलो निरंतर ध्येय की ओर...

नये भोर की प्रथम लालिमा तम में से निकली जो अरुणिमा आज पुकारती सुबह की ओर राह नयी फिर हमें बुलाती चलो निरंतर ध्येय की ओर| पथ के आवर्तों से क्यों थकते हो मन में कुछ संशय क्यों रखते हो मन तो चंचल, मंचला है कब वो किसी और की सुनता है और आवर्तों से क्या डरना वो अब राह के साथी हैं साधो मन को, बाँधों तन को मंज़िल से बाँधों इक डोर राह नयी फिर हमें बुलाती चलो निरंतर ध्येय की ओर| हाँ माना बहुत अभी चलना है हाँ अभी बहुत कुछ बदलना है बदलाव किन्तु नियति का लेखा कब तक सब एक सा रहना है उल्टी चलती हवा को भी तो एक दिन कभी बदलना है परिवर्तन को अनिवार्य मान बस साध हृदय को लक्ष्य की ओर राह नयी फिर हमें बुलाती चलो निरंतर ध्येय की ओर| -रजत द्विवेदी 

पंख टूटे हैं तो क्या......................

पंख टूटे हैं तो क्या , हिम्मत अब भी बाकी है ,  आसमाँ ऊँचा है तो क्या , हौसला अब भी बाकी है | उन्मुक्त गगन इंतज़ार कर रहा , उड़ान अब भी बाकी है ,  नाम हमारा सभी जानते , पर पहचान बनानी बाकी है | दीपक बुझने को आया , अंधियारा फिर से छाया ,  आँधियों से लड़ती जलती दिए में लौ अब भी बाकी है | घनी रात ये कारी सी है , फिर से जंग उजियारे की है ,  अंधियारे को चीर गगन पर भोर निकलनी बाकी है | क्षीण पड़ा है शरीर रण में , जान अभी कुछ बाकी है ,  मस्तक पर खड़ा शत्रु है , जंग अभी भी बाकी है | नियति से लड़कर अब भी तकदीर बदलनी बाकी है ,  काल की छाती पर अपनी भी छाप छोड़नी बाकी है | -रजत द्विवेदी