इमारत ढह रही है देखो सियासी फेरबों की,
जनता की पलकों पर फिर एक नई रौशनी आती है,
सिंहासन खाली करो, देखो जनता आती है|
बहुत हो गया, बहुत दाव पेज खेल चुके सत्ता का,
बहुत मूर्ख बनाया तुमने मासूम देश की जनता का,
देखो उधर शहर में जल उठी आज फिर एक चिंगारी,
सिंहासन खाली करो, देखो जनता आती है|
सस्ते हथकंडे बहुत आज़माँ लिए तुमने मज़हबी नारों के,
खण्ड खण्ड में बाँट दिया है, सियासत की तलवारों ने,
मगर सियासत में दम कहाँ जो हमें कभी तोड़ पाए,
देखो सब ने इंकलाब की अपने मन में ठानी है,
सिंहासन खाली करो, देखो जनता आती है|
आलोचनाएँ बहुत हो गई, अब नई जागृति की बारी है,
मुल्क के नसीब ने देखो फिर आज पलटी मारी है,
हर ओर उठा है शोर क्रान्ति का, सबने की तैयारी है,
सिंहासन खाली करो, देखो जनता आती है|
और नहीं अब और नहीं, कोई छल कपट और नहीं,
यह क्षण पुन:जागृति का, आलस्य का अब दौर नहीं,
देखो हवाओं में फिर से नई लहर एक आती है,
सिंहासन खाली करो, देखो जनता आती है|
-रजत द्विवेदी
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