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Showing posts from 2019

स्वावलोकन

घनघोर निराशा हो मन में, उत्साह न हो जब जीवन में। थक गया हो अंतस क्रंदन से, या स्वेद रुक गए स्यंदन से। उस क्षण रुक जाना गंभीर होकर। सोचो क्या थे, क्या हो गए तुम? ओ वीर कहां पर खो गए तुम! सब बंधु बांधव छूटे हों, अपनों से रिश्ते टूटे हों। निकले सब वादे झूठे हों, अश्रु छुप छुप कर फूटे हों। उस क्षण रुक जाना सहजता से, सोचना कहां कुछ चूक हुई। अपनों से दूर क्यों हो गए तुम? ऐ यार कहां पर खो गए तुम! प्रियसी भी तुमसे रूठ पड़े। सारी बातें जब छूट पड़ें। मन की आशाएं टूट पड़ें। मुख से रुदन भी फूट पड़ें। उस क्षण रुक जाना स्निग्ध होकर। सोचो क्यों प्रेम तजा तुमने? ओ प्रेमी कहां पर खो गए तुम! -रजत द्विवेदी

कर्ण- कृष्ण संवाद

मैत्री का मूल्य चुकाऊं कैसे? उस पर मैं पीठ फिराऊं कैसे? केशव, सुयोधन वह भ्राता है, जिससे जन्मों का नाता है। मुझ पर न दया जग करता था। केवल कटाक्ष ही करता था। तब एक सुयोधन ही तो था, जिसको मैं हृदय से प्रिय रहा। माना सहोदर पांडव मेरे। हैं अजय वीर बांधव मेरे। दुर्योधन पर है उनसे बढ़कर। सुख दुःख का मेरा है सहचर। मैं उसका त्याग करूं कैसे? सुख में मैं स्वास भरूं कैसे? दुर्योधन बस एक सहारा है। मेरे हिय का उजियारा है। वरना क्या बस तम ही है हिय में। है घृणा और क्रंदन हिय में। केशव, जो सुयोधन ना होता, तो कैसे फिर ये कर्ण जीता? अब रोम रोम बस उसका है। जीवन पर हक अब उसका है। मरना जीना अब सब उस संग। हैं एक हृदय, चाहे दो अंग। केशव, आप तो जग के स्वामी। घट घट में बसते अन्तर्यामी। जिस पक्ष भी आप हो जायेंगे, वो सदा सुयश ही पायेंगे। पांडवों को कौन हरा सकता? हरि जहां, वहां काल कब आ सकता? किन्तु सुयोधन अकेला है। उस संग ना महाभट मेला है। मैं ही उसका सेवक और मित्र। मैं ही वीरता का शुभ चित्र। मुझको ही देख वह जागा है। वरना मुझसा ही अभागा है। दुर्भाग्य भला और क्या होग

हुकूमत-ए-हिन्द

आर्जी हुकूमत-ए-हिन्द पर है जान न्योछावर सौ सौ बार। हिन्द की आज़ादी पर बलिदान जवानी सौ सौ बार। वीर सुभाष की सेना को अभिमान रहेगा सौ सौ बार। दिया है भारत माता को सम्मान समूचित सौ सौ बार। कितने बरसों से रहा है अरमान हमें ये सौ सौ बार। उमुक्त गगन में फहराए अपना तिरंगा सौ सौ बार। कितने कट गए शीश चढ़ाने मां के पग में सौ सौ बार। छोड़ दी वीर सुभाष ने अपनी पहचान यहां पर सौ सौ बार। अमर रहेगा प्रेम वतन से, मान बढ़ेगा सौ सौ बार। पूछेगा कोई शहदत अपना नाम रहेगा सौ सौ बार। टूटेगा ना कभी भी ये, अभिमान रहेगा सौ सौ बार। मरते दम तक मुख भारत नाम रहेगा सौ सौ बार। - रजत द्विवेदी

ध्येय क्यों छोड़ दिया.....

मन किस वन में भटक रहा? एकाग्रता अब कहां गई? जितना मैं ध्यान लगाता हूं, मिलता कोई भी उपाय नहीं। आशाएं बांध रखी हैं भले, पर किस विध सड़क तक जाऊं मैं? मन के इस वन में कहीं कभी, घुट घुटकर ना मर जाऊं मैं! क्या दोष विपदाओं पर मढ़ दूं? मैं आप स्वयं थक सा हूं गया। घिस रहा पुरातन शजरों पर, किस तरफ मिले कोई वृक्ष नया। सच है शायद ऐसी ही तो होती है इस मन की भटकन। जिस को पाना दुष्कर हो जाता, उसकी ही सोच में डूबते हैं हम। एक पोखर के स्वछंद नीर सी मन में होती है कोई अभिलाषा। जिसके तट पर नित नित बैठे हम बांधते हैं अगणित आशा। किन्तु समय से पूर्ण नहीं होती है जब वो अभिलाषा। पोखर का वो स्वच्छ पानी धीरे धीरे से है सड़ जाता। अतः मन में फिर भर जाती है हीनता, दुःख और घोर निराशा। मनुज टूटकर कांच की तरह, चारों ओर है बिखर जाता। इससे भला है एक वक्त तक किसी ध्येय पर ध्यान लगाना। अथक प्रयासों बाद हारे तो, उसे छोड़ आगे बढ़ जाना। मंज़िल पाने की आशा चाहे कितनी भी घोर भली। किन्तु कई पराजय बाद भी, खुद को छलना सही नहीं। मनोबल जब भी टूटता है कई बार हार जाने के बाद। उठता नही

नियति

है नहीं यह वही ठोर जिस पर मैं जलता था। अवनी की बनती अंगीठी जब मैं चलता था। पांव पर जब छालों का श्रृंगार होता था। राह पर नित कांटों का भंडार होता था। मौसमों में एक अपनी जलन होती थी। देह में पर ख़ुद-ब-ख़ुद एक गलन होती थी। छूटता था जो पसीना मुझे भिंगोता था। मेरे हांथों में बस बहता पानी होता था। अब मगर क्या हो गया इस ठोर पर आकर? पांव के नीचे हैं मिलते फूल भर भरकर। जैसे नियति मुझ पर कोई दया दिखाती है। मुझको मेरी दुर्बलता का बोध कराती है। मैं दया का पात्र तो कभी नहीं रह चुका हूं। हर एक पीड़ा को बहादुरी से मैं सह चुका हूं। तो क्यों नियति करुणा का मुझे विष पिलाती है? मुझको अपने सामने क्यों यूं झुकाती है? - रजत द्विवेदी h //www.yourquote.in/rajat-dwivedi-hmpx/quotes/hai-nhiin-yh-vhii-tthor-jis-pr-main-jltaa-thaa-avnii-kii-jb-w1ec3

पाठक और लेखक

यह भी एक यथार्थ है कि इन रचनाओं का कुछ मोल नहीं। पाठक को जो छू जाए ऐसे अब कहने को बोल नहीं। आज पद्धति संवादों की ऐसी कुछ बन आई है। एक ज़रूरत मन को बस सुकून देने की हो आई है। कोई रचना मिलती है जब किसी पाठक की हालत से। वह जोड़ लिया करता है खुद को कुछ पल को उस रचना से। और हाय! जब दिल को उसके कुछ तसल्ली हो जाती है। सारी रुचि पाठक की फिर जाने कहां खो जाती है। अब मिलते हैं बहुत ही कम वो स्वार्थहीन सच्चे प्रेमी। जो लेखक की प्रतिभा का भी मोल समझा करते हैं। लेखक केवल प्रशंसाओं का भूखा कभी नहीं होता है। वह अपनी रचनाओं की सच्ची समीक्षाएं खोजा करता है। सच्ची प्रशंसा या निंदा- ये ही लेखक को सिखाती हैं। अच्छे को बेहतर, बेहतर को सर्वश्रेष्ठ बनाती हैं। इसलिए एक पाठक लेखक के जीवन में ज़रूरी है। पाठक बिन लेखक की रचनाएं अक्सर अधूरी हैं। -रजत द्विवेदी

शास्त्री

कितने कष्ट कंटकों में उलझा रहता ये एक प्रसून। जग की तंद्रालस्य छोड़कर, खिला कहीं विजन में दूर। जिसकी सरल, कमोलता से रवि भी पिघल जाता है। नयन नीर को धरती पर जो सावन सा बरसाता है। ऐसा ही एक मनुज हुआ था भारत की इस धरती पर। जिसके सहज, सरल जीवन पर प्रमुदित रहा करते थे सब। छोटा कद और शिथिल शरीर, मगर अनंत प्रतिभाशाली। जिसने अपनी सरल मुस्कान से सारी दुनिया जीत डाली। ऐसा प्यारा नेता जग में और कहीं फिर होगा क्या? ऐसा वीर प्रणेता कोई और कहीं फिर होगा क्या? " लाल बहादुर" नाम नहीं ऐसे ही इन्होंने पाया है। कुटिल सियासी खेलों में अपना आदर्श दिखाया है। भूल रहा क्यों देश आज ऐसे सहजगुण नेता को? भूल रहा क्यों देश आज इस सरल विश्व विजेता को? - रजत द्विवेदी

कलम और कागज़

इतिहासों में लिखा जायेगा कभी यह भी अपराध। बिगड़ रहा है आज कलम और कागज़ का संवाद। एक दौर था जग का जब सामर्थ्य लिखाया जाता था। और प्रेम गीतों पर सहज ही मोती लुटाया जाता था। लेखन थी आराधना एक, वो मां भारती की वंदना थी। जननी जन्मभूमि थी और हिंदी उसकी अर्चना थी। रजत निशा में दीप जलाए रखते थे कलम पर आलोक, और बुझा जो दीप कभी तो लिख देते थे हम भी शोक। उदय प्रांत का एक दिवाकर और मैं दिनकर कलमकार। दोनों नित नित पुण्य विभा से जग को करते थे साकार। किन्तु आज क्या हाल हो गया लेखन की परिभाषा का। भेद नहीं पता चलता, क्या करते लोग हैं भाषा का। शब्द शब्द अशुद्ध हो गए, भाव कहां से व्यक्त करें। मोक्ष कहूं तो जग को लगता,"मरने को कहता है, अरे"! कहीं और विधाओं जैसे लेखन भी ना खो जाए। जो दुर्दशा हुई संस्कृत की, हिंदी की ना हो जाए। - रजत द्विवेदी

नर

खड़ा है आज नर क्यों खिन्न होकर? समूचे लोक से यूं भिन्न होकर। कहीं कुछ बात बदली है यहां क्या? मनुज की जात बदली है यहां क्या? क्यों जग से दूर होता जा रहा है? नहीं क्यों स्नेह सबका पा रहा है? था उसका दोष बस इतना ही कहना, नहीं कभी मौन हो अन्याय सहना। था बल उसमें कि सच को सच कहे वो। नहीं कभी झूठ की आश्रय गहे वो। मगर क्या खूब हुआ उपहास उसका। है दुष्कर अब तो लेना श्वास उसका। भला जो जग को यूं ललकारता हो। कलि से लड़ने को उच्चारता हो। कहां वो चैन से अब जी सकेगा? कहां जीवन का अमृत पी सकेगा? उसे तो अब हलाहल पीना होगा। स्वयं विषधर सा बनकर जीना होगा। है तपना अब उसे तो राम बनकर, मनुजता का अटल अभिमान बनकर। नहीं कोई और पथ बाकी है उसका। यहां पर कौन अब साथी है उसका? है जीना अब उसे तो पार्थ बनकर या मरना कर्ण सा निस्वार्थ बनकर। - रजत द्विवेदी

महिमामंडन

है कौन यहां जो रुकता है? जो पथ के आगे झुकता है। चलते रहते हैं उद्योगी, अपनी मंज़िल को मनमौजी। कब सोचा उन्होंने थकने का, या कि पराजय चखने का? बस जीतने की आस ठानी है। करनी ख़ुद की मनमानी है। पत्थर से मूक नहीं है हम, खाली संदूक नहीं हैं हम। हम में संचित हैं ध्वनि अपार, हम रत्नों का अनुपम भंडार। सागर मंथन में जन्में हैं, धन्वंतरी और अमृत भी हैं। अपनी कीर्तियां अपरंपार, हम हैं आशाओं का आधार। - रजत द्विवेदी

आरोहण

आज अग्नि सरिता में भिंगोए पांव लिए चलते हैं, हम अपने संग क्रांति का सौभाग्य लिए चलते हैं। पद ये पड़ेंगे जिस भी डगर पर, ज्योतित पथ को करेंगे,  बाद हमारे जग को ये एक अजर इतिहास कहेंगे। आज हमारा, औरों का कल होगा स्वर्णिम वह सपना, जिस पर अब तक सर्वस्व लुटाया है हम सबने अपना। और दीप्त हो रहा है नभ देखो तन की ज्वाला से, छलक रहा है अमृत जैसे इंकलाब हाला से। चमक रहीं श्यामल ललाट पर श्रमवारि की बूंदें, कैसे इस दुर्लभ मुख पर कोई रह सकता आंखें मूंदे? फूट पड़ी हैं दिव्य शिराएं रक्तधार कंपन से, ठंडक देती है ज्वाला जैसे शीतल चंदन से। करुण विभाएं आज तरुण इस देह को सहलाती हैं, पुण्य समीरा हल्के हल्के कानों में कहती जाती है- "ओ कुमार, ये ही है आरम्भ तेरी अनंत कीर्ति का... तुझको ही हरना है अब सारा विषाद धरती का।" पुण्य दिवाकर जैसे अब हमको तो नित जलना है, या कि हिमकर के समान रजनी को अमर करना है। कौन कह रहा कर्ता कोई जग का शेष नहीं है, यह आरोहण है जग का, कोई ध्वंस अवशेष नहीं है।  -रजत द्विवेदी

पारावार

है कहां बंध रही नद अब किसी पारावार में, उठ रहीं हैं कराल लहरें आज तो मझधार में। अब कोई भयावी तूफां सिंधु में आने को है, इस नदी की आज मनसा ज्वार बन जाने को है। देखो नद अब सिंधु में मिलकर उसे न निगल ले, खारे पानी की प्रवृति पूर्णतः न बदल दे। जब कभी भी ज्वार का कद सिंधु से बढ़ जाता है, सिंधु का सारा पराक्रम ज्वार खींच ले जाता है। - रजत द्विवेदी

कर्मयोग

कहो कहां कब चला ज़ोर है योगी पर किसी छल का? कर्मयोग ही सिद्ध विधा है जो प्रमाण है बल का। एक तपस्वी ही तो है वो भी जो कर्म करता है। कर्म साधना को ही जो बस अपना धर्म कहता है। औरों के छल, कपट, स्नेह और प्रेमपाश से दूर, कर्मयोगी संलग्न रहा करते हैं, योग में चूर। जग का कुछ भी दुख सुख योगी को ना तड़पाता है। योगी बस अपनी आराधना ही करता जाता है। निष्फल है ऐसे मानव को अपनी ओर रिझाना, जिस पर होता है सवार बस अपना कर्म निभाना। ऐसे विरले होते जग में जो हो मोह से दूर। कर्म में अपने लीन रहा करते जो जग को भूल। कर्मयोगियों में प्रधानता होती है दृढ़ता की, और भला पहचान कहां होती है कुछ प्रतिभा की। मिथ्य सिद्धियों को पाकर जो व्यर्थ फूला करते हैं, कहां कभी वो मूर्ख कर्म को पहचाना करते हैं। - रजत द्विवेदी

करुणा..

नयन सेज पर उभरे आंसू, भींज गई है हिय की भूमि। मृदुभावों का बादल आया, बरस रही करुणा की बूंदे। निर्मोही मन के प्रदेश में, आज प्रेम का सावन आया। दयाहीन को दया मिली है, मृतकों ने नया जीवन पाया। कौन मधुरता भरा लेप यह आज मन पर लगाता है। घृणा से पीड़ित इस तन को जो शीतलता पहुंचाता है। कौन देवदूत उतरा है आज हमारे आंगन में? जिसने प्रेम सुधा बरसाई मरुभूमि से इस तन में? कौन भगीरथ आज पुनः जग के कल्याण हेतु आया। जिसने इस बंजर भूमि पर करुण गंगा को बहाया? - रजत द्विवेदी

राम कहां है?

कहां और अब राम वनों में रह रहकर पलता है, माता और पिता की इच्छा का जो पालन करता है? नाम भले ही राम धरा तो क्या गुण भी अपनाए हैं? राम नाम का चोगा ओढ़े बस पाखंड दिखाए हैं। कहां आज कोई भाई अब भाई पर स्नेह बरसाता है, अपने सहोदर से ही क्यों जाने वो घृणा दिखाता है। हाय राम! ये किस समाज में आज तुम्हें भजते हैं सब? घर को तोड़ मकान बनाए, "राम" उसी पर लिखते सब। ऐसे ही गर चलता रहा तो एक दिन वो भी आयेगा, भाई से भाई का रिश्ता बस व्यापार रह जायेगा। राम अपने नाम को बचा लो धरती पर उपकार करो। ऐसे संबंधों से बचाने फिर से मनुष्य अवतार धरो। -रजत द्विवेदी

पशुता

जड़ चेतन में भेद नहीं अब, दोनों दिखते एक समान। शुरू हो गया पतन जगत का, हो कैसे इसका उत्थान? जड़ ज्यों बिन चेतना के मूड़ मति होता जग में, अब सचेत मानव भी वैसा ही होता जा रहा जग में। सविवेक को त्याग चुका नर, औरों के दम पर चलता है। स्वयं आंक ना सकता सच को, झूठो हामी भरता है। कठपुतली बन गया समाज का, रोज़ नचाया जाता है। कितना विवश हो चुका है वह ये भी समझ न पाता है। हे विधाता, क्यों आख़िर तेरा नर है लाचार यहां? पग में बांध लिए हैं लोहे, अब जाए तो जाए कहां? पशु और जड़ की तरह ही मानव भी मतिहीन हुआ। बुद्धि,बल का स्वामी मानव आज पशुता में लीन हुआ। सृष्टि के आरम्भ मात्र में बस मानव को ज्ञान मिला। चिंतन, मनन, वाचन की शक्ति और स्वाभिमान मिला। मगर आज वह अन्य पशुओं की भाती क्यों हो रहा है? -रजत द्विवेदी

विश्वबंधु

मैं शाश्वत रूप शूरता का, जग को ये दान करता हूं। जिनमें ना हो कुछ बल उनको अग्नि प्रदान करता हूं। मेरी ही दिव्य ज्योतियों से ये वन्य कुसुम खिलते हैं। धरती पर श्वास बहा करती, जीवन सबके चलते हैं। मैंने ही तो सारे जग को जीवन जीना सिखलाया। "वसुधैव कुटुंबकम्" का मैंने प्रचार फैलाया। पश्चिम को पूरब से जोड़ा, पृथ्वी को एक किया है। "हिन्दू" क्या होता है सच्चा, जग ने तब बोध किया है। जब विश्व खड़ा था महायुद्ध की भीषण अभिलाषा से। मैंने दिखलाया था भारत का मुख उन्हें बड़ी आशा से। जो देश सभी उस समय धर्म के नाम पर ही लड़ते थे। रंग, जात और मूल से ही जग को बांटा करते थे। उनको मैंने ही "विश्व बंधुत्व" का आयाम दिया था। भारत को "विश्व गुरु" का ही मैंने तब नाम दिया था। मेरे "हिन्दू" होने पर मैंने, खुद को अभिमान दिया था। "हिंदुत्व मात्र एक धर्म नहीं"- जग को पैग़ाम दिया था। हिंदुत्व स्वयं में धर्म नहीं, जीवन जीने की शैली है। पर हाय! आज इस राजतंत्र में क्यों इतनी ये मैली है? हिन्दू की असल पहचान जो थी, उसको ये सत्ता खा बैठी। नफ़र

विद्युत की इस चकाचौंध में.....

विद्युत की इस चकाचौंध में देख दीप की लौ रोती है। बहु नयनों में अंधियारा है, चंद घरों में ज्योति है। यह समाज क्यों गर्त में पड़ा, सुख की तान सुनाता है। थोथी बात बखाने ख़ुद की, तम से घिरता जाता है। आज पतन की राह पर चला है कारवां मानव का। भूख से ग्रसित तड़प रहे घर, खुल गया मुख दानव का। नगर के एक छोर पर देखो भात दाल ना रोटी है। दूजी ओर लुटाते देखो व्यर्थ में ही लोग मोती है। ये कैसा है फ़र्क जगत का एक हांथ में है लक्ष्मी, दूजे में है लिए हुए जो बिलख रही भूखी बच्ची। कहो क्यों भला नियति की झोली इतनी छोटी है। एक वर्ग को कंकड़ देता, दूजे को दे मोती है। विद्युत की इस चकाचौंध में देख दीप की लौ रोती है। बहु नयनों में अंधियारा है, चंद घरों में ज्योति है। - रजत द्विवेदी https://www.yourquote.in/rajat-dwivedi-hmpx/quotes/vidyut-kii-ckaacaundh-men-dekh-diip-kii-lau-rotii-hai-bhu-yh-r8tsi