है कौन यहां जो रुकता है? जो पथ के आगे झुकता है। चलते रहते हैं उद्योगी, अपनी मंज़िल को मनमौजी। कब सोचा उन्होंने थकने का, या कि पराजय चखने का? बस जीतने की आस ठानी है। करनी ख़ुद की मनमानी है। पत्थर से मूक नहीं है हम, खाली संदूक नहीं हैं हम। हम में संचित हैं ध्वनि अपार, हम रत्नों का अनुपम भंडार। सागर मंथन में जन्में हैं, धन्वंतरी और अमृत भी हैं। अपनी कीर्तियां अपरंपार, हम हैं आशाओं का आधार। - रजत द्विवेदी
कलम की स्याही से हर पल नया अंगार लिखता हूँ