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Showing posts from August, 2019

महिमामंडन

है कौन यहां जो रुकता है? जो पथ के आगे झुकता है। चलते रहते हैं उद्योगी, अपनी मंज़िल को मनमौजी। कब सोचा उन्होंने थकने का, या कि पराजय चखने का? बस जीतने की आस ठानी है। करनी ख़ुद की मनमानी है। पत्थर से मूक नहीं है हम, खाली संदूक नहीं हैं हम। हम में संचित हैं ध्वनि अपार, हम रत्नों का अनुपम भंडार। सागर मंथन में जन्में हैं, धन्वंतरी और अमृत भी हैं। अपनी कीर्तियां अपरंपार, हम हैं आशाओं का आधार। - रजत द्विवेदी

आरोहण

आज अग्नि सरिता में भिंगोए पांव लिए चलते हैं, हम अपने संग क्रांति का सौभाग्य लिए चलते हैं। पद ये पड़ेंगे जिस भी डगर पर, ज्योतित पथ को करेंगे,  बाद हमारे जग को ये एक अजर इतिहास कहेंगे। आज हमारा, औरों का कल होगा स्वर्णिम वह सपना, जिस पर अब तक सर्वस्व लुटाया है हम सबने अपना। और दीप्त हो रहा है नभ देखो तन की ज्वाला से, छलक रहा है अमृत जैसे इंकलाब हाला से। चमक रहीं श्यामल ललाट पर श्रमवारि की बूंदें, कैसे इस दुर्लभ मुख पर कोई रह सकता आंखें मूंदे? फूट पड़ी हैं दिव्य शिराएं रक्तधार कंपन से, ठंडक देती है ज्वाला जैसे शीतल चंदन से। करुण विभाएं आज तरुण इस देह को सहलाती हैं, पुण्य समीरा हल्के हल्के कानों में कहती जाती है- "ओ कुमार, ये ही है आरम्भ तेरी अनंत कीर्ति का... तुझको ही हरना है अब सारा विषाद धरती का।" पुण्य दिवाकर जैसे अब हमको तो नित जलना है, या कि हिमकर के समान रजनी को अमर करना है। कौन कह रहा कर्ता कोई जग का शेष नहीं है, यह आरोहण है जग का, कोई ध्वंस अवशेष नहीं है।  -रजत द्विवेदी

पारावार

है कहां बंध रही नद अब किसी पारावार में, उठ रहीं हैं कराल लहरें आज तो मझधार में। अब कोई भयावी तूफां सिंधु में आने को है, इस नदी की आज मनसा ज्वार बन जाने को है। देखो नद अब सिंधु में मिलकर उसे न निगल ले, खारे पानी की प्रवृति पूर्णतः न बदल दे। जब कभी भी ज्वार का कद सिंधु से बढ़ जाता है, सिंधु का सारा पराक्रम ज्वार खींच ले जाता है। - रजत द्विवेदी

कर्मयोग

कहो कहां कब चला ज़ोर है योगी पर किसी छल का? कर्मयोग ही सिद्ध विधा है जो प्रमाण है बल का। एक तपस्वी ही तो है वो भी जो कर्म करता है। कर्म साधना को ही जो बस अपना धर्म कहता है। औरों के छल, कपट, स्नेह और प्रेमपाश से दूर, कर्मयोगी संलग्न रहा करते हैं, योग में चूर। जग का कुछ भी दुख सुख योगी को ना तड़पाता है। योगी बस अपनी आराधना ही करता जाता है। निष्फल है ऐसे मानव को अपनी ओर रिझाना, जिस पर होता है सवार बस अपना कर्म निभाना। ऐसे विरले होते जग में जो हो मोह से दूर। कर्म में अपने लीन रहा करते जो जग को भूल। कर्मयोगियों में प्रधानता होती है दृढ़ता की, और भला पहचान कहां होती है कुछ प्रतिभा की। मिथ्य सिद्धियों को पाकर जो व्यर्थ फूला करते हैं, कहां कभी वो मूर्ख कर्म को पहचाना करते हैं। - रजत द्विवेदी