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Showing posts from December, 2018

हिम टूट पड़ा भू मंडल पर.....

हिम टूट पड़ा भू मंडल पर... एक शीत लहर निराशा की, अंधियाली रातों में चल दी।  हैं क्षीण सर्दियों से ठिठुरती चारु की चंचल किरणें भी। पृथ्वी पर छाया एक कहर, हिम टूट पड़ा भू मंडल पर। तम और ज़रा गहराता है, कुछ भी अब नज़र न आता है। चन्द्रमा छिपा ही जाता है, हिम से खुद को बचाता है। आया है ये एक कठिन पहर, हिम टूट पड़ा भू मंडल पर। सड़कों पर बेबस रोते हैं, हर रोज़ ज़िंदगी खोते हैं। जो चूर महलों की रौनक में, ज़िंदगी से बेखबर होते हैं। इक धुंध में गुम है सारा शहर, हिम टूट पड़ा भू मंडल पर। वन जीवन सारा रुक सा गया, वृक्षों का कद झुक सा गया। पशुओं पर छाया आलस है,  निद्रा में जंगल डूब गया। सूखी डाली, सूखा शजर, हिम टूट पड़ा भू मंडल पर। जग जीवन अब थर्राता है, मन व्याकुल सा हो जाता है। है ठिठुर चुका सारा तन मन, कुछ गरमाहट ना पता है। मृत सा ठंडा पड़ा है शर, हिम टूट पड़ा भू मंडल पर। हिम का अब तेज हरूं कैसे? अग्नि जग में भरूं कैसे? किस तरह ज़िंदगी जाग उठे? तम को सूरज मैं करूं कैसे? जागे कैसे कोई आग प्रखर? हिम टूट पड़ा भू मं

ज्योतिकलम

मैं ज्योतिपुंज,सारे जग का उजियारा, मुझसे ही तो हर बार तिमिर है हारा। मेरे मुख में ही तो प्रकाश पलता है, मेरी विभाओं से ही सूरज जलता है। नभ में फैली जो अनंत तक कनक छटा है, मेरे दिनकर की ही ये पुण्य प्रभा है। धरती पर नित जो जीव जंतु चलते हैं मेरे प्रकाश ही भरकर पलते हैं। मैं कवि निमित्त जो रहता सदा प्रगति में, उजियारा भरता जीवन के घोर तिमिर में। कब काल के रोका कहो कभी मैं रुका हूं? या नतमस्तक हो तम के आगे मैं झुका हूं। मेरी कलम में विपलभ की है चिंगारी, हर बार खड़ग पर पड़ी कलम ही भारी। क्रान्ति का हूं मैं बीज, छिपा धरती में, हल हांको तो हलचल होती धरती में। फिर एक रूप ले वीरभद्र आता हूं, सारी सृष्टि का समग्र नाश करता हूं। फिर सृजन बीज बनकर जग में पलता हूं, जग को जीवन का दान अमर करता हूं। -रजत द्विवेदी 

नवप्रकाश

धुंधली है रात,घनघोर घटा। अंधियारे की फैली है छटा। अंबर पर तारे अब गुम से हैं। चारू की किरणें कमज़ोर हुई। ये एक अंधेरा कैसा है। जिस पर चंदा का ज़ोर नहीं? तम में भी गूंजित एक प्रतिध्वनि है। लेकिन ज्योति में शोर नहीं? क्यों नभमंडल ये सूना सा है? कोई कीर्ति पताखा प्रज्वलित नहीं। सब सोए हुए सितारे हैं। इस आसमान में चमक नहीं? पूछो कोई जुगनू,तारों से। तम के छोटे उजियारों से। नभ के जलते अंगारों से। अंबर के उदित सितारों से। क्यों छिप गए तम में डरकर? क्यों खोई अपनी आग प्रखर? तम से क्यों हार अब मान लिया? क्यों ना मर जाते लड़ लड़कर? ये जग में जो अंधियारा है। पल भर का ही खेल ये सारा है। कल फिर से सूर्य उदित होगा। फिर चहु ओर उजियारा है। तो आओ सब जुगनू तारों संग, अब खुशियां सभी मनाते हैं। अंगारों को नस नस में भरकर, अब तम से रार मचाते हैं। लेकर मशालें हांथों में, जग को रौशन कर जाते हैं। अंधियारे में आओ सब मिलकर, आशा का दीप जलाते हैं। -रजत द्विवेदी