धुंधली है रात,घनघोर घटा। अंधियारे की फैली है छटा।
अंबर पर तारे अब गुम से हैं। चारू की किरणें कमज़ोर हुई।
ये एक अंधेरा कैसा है। जिस पर चंदा का ज़ोर नहीं?
तम में भी गूंजित एक प्रतिध्वनि है। लेकिन ज्योति में शोर नहीं?
क्यों नभमंडल ये सूना सा है? कोई कीर्ति पताखा प्रज्वलित नहीं।
सब सोए हुए सितारे हैं। इस आसमान में चमक नहीं?
पूछो कोई जुगनू,तारों से। तम के छोटे उजियारों से।
नभ के जलते अंगारों से। अंबर के उदित सितारों से।
क्यों छिप गए तम में डरकर? क्यों खोई अपनी आग प्रखर?
तम से क्यों हार अब मान लिया? क्यों ना मर जाते लड़ लड़कर?
ये जग में जो अंधियारा है। पल भर का ही खेल ये सारा है।
कल फिर से सूर्य उदित होगा। फिर चहु ओर उजियारा है।
तो आओ सब जुगनू तारों संग, अब खुशियां सभी मनाते हैं।
अंगारों को नस नस में भरकर, अब तम से रार मचाते हैं।
लेकर मशालें हांथों में, जग को रौशन कर जाते हैं।
अंधियारे में आओ सब मिलकर, आशा का दीप जलाते हैं।
-रजत द्विवेदी
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