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Showing posts from October, 2019

हुकूमत-ए-हिन्द

आर्जी हुकूमत-ए-हिन्द पर है जान न्योछावर सौ सौ बार। हिन्द की आज़ादी पर बलिदान जवानी सौ सौ बार। वीर सुभाष की सेना को अभिमान रहेगा सौ सौ बार। दिया है भारत माता को सम्मान समूचित सौ सौ बार। कितने बरसों से रहा है अरमान हमें ये सौ सौ बार। उमुक्त गगन में फहराए अपना तिरंगा सौ सौ बार। कितने कट गए शीश चढ़ाने मां के पग में सौ सौ बार। छोड़ दी वीर सुभाष ने अपनी पहचान यहां पर सौ सौ बार। अमर रहेगा प्रेम वतन से, मान बढ़ेगा सौ सौ बार। पूछेगा कोई शहदत अपना नाम रहेगा सौ सौ बार। टूटेगा ना कभी भी ये, अभिमान रहेगा सौ सौ बार। मरते दम तक मुख भारत नाम रहेगा सौ सौ बार। - रजत द्विवेदी

ध्येय क्यों छोड़ दिया.....

मन किस वन में भटक रहा? एकाग्रता अब कहां गई? जितना मैं ध्यान लगाता हूं, मिलता कोई भी उपाय नहीं। आशाएं बांध रखी हैं भले, पर किस विध सड़क तक जाऊं मैं? मन के इस वन में कहीं कभी, घुट घुटकर ना मर जाऊं मैं! क्या दोष विपदाओं पर मढ़ दूं? मैं आप स्वयं थक सा हूं गया। घिस रहा पुरातन शजरों पर, किस तरफ मिले कोई वृक्ष नया। सच है शायद ऐसी ही तो होती है इस मन की भटकन। जिस को पाना दुष्कर हो जाता, उसकी ही सोच में डूबते हैं हम। एक पोखर के स्वछंद नीर सी मन में होती है कोई अभिलाषा। जिसके तट पर नित नित बैठे हम बांधते हैं अगणित आशा। किन्तु समय से पूर्ण नहीं होती है जब वो अभिलाषा। पोखर का वो स्वच्छ पानी धीरे धीरे से है सड़ जाता। अतः मन में फिर भर जाती है हीनता, दुःख और घोर निराशा। मनुज टूटकर कांच की तरह, चारों ओर है बिखर जाता। इससे भला है एक वक्त तक किसी ध्येय पर ध्यान लगाना। अथक प्रयासों बाद हारे तो, उसे छोड़ आगे बढ़ जाना। मंज़िल पाने की आशा चाहे कितनी भी घोर भली। किन्तु कई पराजय बाद भी, खुद को छलना सही नहीं। मनोबल जब भी टूटता है कई बार हार जाने के बाद। उठता नही

नियति

है नहीं यह वही ठोर जिस पर मैं जलता था। अवनी की बनती अंगीठी जब मैं चलता था। पांव पर जब छालों का श्रृंगार होता था। राह पर नित कांटों का भंडार होता था। मौसमों में एक अपनी जलन होती थी। देह में पर ख़ुद-ब-ख़ुद एक गलन होती थी। छूटता था जो पसीना मुझे भिंगोता था। मेरे हांथों में बस बहता पानी होता था। अब मगर क्या हो गया इस ठोर पर आकर? पांव के नीचे हैं मिलते फूल भर भरकर। जैसे नियति मुझ पर कोई दया दिखाती है। मुझको मेरी दुर्बलता का बोध कराती है। मैं दया का पात्र तो कभी नहीं रह चुका हूं। हर एक पीड़ा को बहादुरी से मैं सह चुका हूं। तो क्यों नियति करुणा का मुझे विष पिलाती है? मुझको अपने सामने क्यों यूं झुकाती है? - रजत द्विवेदी h //www.yourquote.in/rajat-dwivedi-hmpx/quotes/hai-nhiin-yh-vhii-tthor-jis-pr-main-jltaa-thaa-avnii-kii-jb-w1ec3

पाठक और लेखक

यह भी एक यथार्थ है कि इन रचनाओं का कुछ मोल नहीं। पाठक को जो छू जाए ऐसे अब कहने को बोल नहीं। आज पद्धति संवादों की ऐसी कुछ बन आई है। एक ज़रूरत मन को बस सुकून देने की हो आई है। कोई रचना मिलती है जब किसी पाठक की हालत से। वह जोड़ लिया करता है खुद को कुछ पल को उस रचना से। और हाय! जब दिल को उसके कुछ तसल्ली हो जाती है। सारी रुचि पाठक की फिर जाने कहां खो जाती है। अब मिलते हैं बहुत ही कम वो स्वार्थहीन सच्चे प्रेमी। जो लेखक की प्रतिभा का भी मोल समझा करते हैं। लेखक केवल प्रशंसाओं का भूखा कभी नहीं होता है। वह अपनी रचनाओं की सच्ची समीक्षाएं खोजा करता है। सच्ची प्रशंसा या निंदा- ये ही लेखक को सिखाती हैं। अच्छे को बेहतर, बेहतर को सर्वश्रेष्ठ बनाती हैं। इसलिए एक पाठक लेखक के जीवन में ज़रूरी है। पाठक बिन लेखक की रचनाएं अक्सर अधूरी हैं। -रजत द्विवेदी

शास्त्री

कितने कष्ट कंटकों में उलझा रहता ये एक प्रसून। जग की तंद्रालस्य छोड़कर, खिला कहीं विजन में दूर। जिसकी सरल, कमोलता से रवि भी पिघल जाता है। नयन नीर को धरती पर जो सावन सा बरसाता है। ऐसा ही एक मनुज हुआ था भारत की इस धरती पर। जिसके सहज, सरल जीवन पर प्रमुदित रहा करते थे सब। छोटा कद और शिथिल शरीर, मगर अनंत प्रतिभाशाली। जिसने अपनी सरल मुस्कान से सारी दुनिया जीत डाली। ऐसा प्यारा नेता जग में और कहीं फिर होगा क्या? ऐसा वीर प्रणेता कोई और कहीं फिर होगा क्या? " लाल बहादुर" नाम नहीं ऐसे ही इन्होंने पाया है। कुटिल सियासी खेलों में अपना आदर्श दिखाया है। भूल रहा क्यों देश आज ऐसे सहजगुण नेता को? भूल रहा क्यों देश आज इस सरल विश्व विजेता को? - रजत द्विवेदी