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Showing posts from March, 2018

पासबाँ

वो पासबाँ वतन के, जो कट गए वतन पे बाकी है कर्ज आज भी उनके लहू का हम पे| कोई शहीद-ए-आज़ाम, कोई शेर-ए-हिन्द था कोई बुहरूपी पंडित आज़ाद हो कर गुम था| सब छोड़ घर चले थे, घर हिन्द को बचाने माँ भारती की खातिर अपने कफन चढ़ाने| पर हाय रे ये मुल्क अहसाँ फरामोश निकला खादी तो याद है इसको, चरखा तो याद है इसको लेकिन कलम बसंती, पिस्तौल,खाकी भूला| भूला कलम वो जिससे भगत ने इंकलाब लिखा था भूला पिस्तौल जो खुद पर आज़ाद ने धरा था भूला वो खाकी सुभाष की जिससे ब्रिटेन तक डरा था| बस ले रखा है सब ने चरखे का ही सहारा जपते हैं बस अंहिसा, सब ने यही पुकारा| हैं भूल जाते सब शाहदत की कहानी जिसमें लहू से सीचीं आबाद हुई जवानी| सरकार चाहे कुछ भी करले,चाहे जो भी बताए शाहदत अमर रहेगी हमारे दिलों में यूँ ही समाए| है जोर भी कहाँ सियासत में जो सत्य को छिपाए हम तो क्रान्ति के यहाँ सदा गीत यूँ ही गुनगुनाएं| -रजत द्विवेदी 

कलम मेरी..

गीत गज़ल सब बीत गये,भूली सकल कहानी है  आज कलम में स्याह नहीं वो, जिसमें प्रेम रवानी है| कलम उठी है आज लहू से गढ़ने को इतिहास नया  कागज़ पर बारूद उगल कर, लिखने को आगाज़ नया| आओ देखूँ मैं भी कितना भरा है तुझमें शक्ति अपार  क्या डिगा सकती मेरी ये कलम, तेरी नन्ही तलवार?  क्या तेरे सब खेल सियासी इतनी शक्तिशाली  हैं?  जो चुप करा सकें इस कलम को, जिसकी हुंकार भयकारी है| माना तेरी सत्ता का बल मेरी कलम से भारी पर मेरी ये कलम कम नहीं, उगलती सदा चिंगारी है| जब जब कहीं होगा अंधियारा, जब जब अन्याय फैलेगा  कलम मेरी ये मशाल बनेगी, घर घर फिर उजियाला होगा| जब भी कभी इस सकल जगत में नयी सृजन की दरकार होगी  कलम मेरी क्रान्ति उगल कर, जगत का संहार करेगी| फिर बन कोई बीज सृजन का नयी जिंदगी लिख देगी  सारे जहाँ में जान फूँक कर, नयी उमंगें भर देगी| -रजत द्विवेदी 

शान्ति...

जल,थल, नभ अम्बरतल, सब करें शान्ति पुकार पर कहो कहाँ है शान्ति, कहाँ खुशी और प्यार ? सभी शान्ति की बीन बजाते, करे अमन की गुहार लेकिन कहीं सुनाई ना देती शान्ति गीत झंकार| सभी शान्ति अहिंसा का, चोगा ओढ़ चलते हैं अहिंसा का नाम लिए अपनी कायरता ढ़कते हैं| शान्ति युद्ध का विकल्प नहीं है, शान्ति युद्ध का फल है जहाँ नहीं हो क्रान्ति सृजन की, वहाँ शान्ति निष्फल है| शान्ति शान्ति सब रटते फिरते, राग अमन का गाते नगर कोलाहल मचा हुआ है, झगड़े, दंगों की आवाज़ें रोज़ किसी घर, गाँव, शहर में मौत आकर हँसती है कैसी भला ये है शान्ति, जब रोज़ जिंदगी रोती है| मुझे बताओ यहाँ पर कोई, आखिर शान्ति क्या है? हिंसा को छुपाते रहना,क्या शान्ति की परिभाषा है? या अपनी कायरता को छिपा कर, शान्ति का नाम देना? या कि सच को छुपा यहाँ बस अमन सुरों को गाना?  -रजत द्विवेदी 

युद्ध

शस्त्र या शास्त्र? खड्ग या कलम? ज़र, ज़मीन या कागज़? युद्ध कहाँ नहीं है? सैनिक या कवि? राजा या फकीर? नेता या वज़ीर? योद्धा कौन नहीं? सब लड़ते यहाँ पर एक जंग ही हैं.. कोई खड्ग से, कोई कलम से कोई शास्त्र से, कोई तर्क से कोई अस्त्र उठा रण में जाता है कोई कलम से कागज़ पर शोले बरसाता है कोई राज्यों को जीतने में लगा रहता है कोई खुद से रोज़ जीतता या हारता है| फिर युद्ध की कोई एक पहचान कहाँ.. फिर युद्ध का कोई एक नाम कहाँ.. -रजत द्विवेदी 

वीर की मधुशाला

अश्रु सिंधु को छोड़,समर में ले लाया कर में हाला, भरा हुआ है आज वीरता के रस से मेरा प्याला, छिड़क रहा हूँ पौरुष का बल चहु और अब रण में मैं , अग्निगंध सी महक उठी है आज मेरी ये मधुशाला।।१।। भरी रगों में आग प्रखर जो, बना लिया उसकी हाला, सुनकर नाद राग भैरव का, पी जाता हूँ विष का प्याला, कभी इधर कभी उधर पग धरता,शौर्य के मद चूर हुआ, जिधर भी देखूं रण में मुझको दिख जाती है मधुशाला।।२।। विजयी समर की चाह लिए मैं रोज़ बनाता अपनी हाला, सोच रहा मैं पियूँ हलाहल या पी जाऊँ अमर प्याला , रण जीतूँ या वीर गति को प्राप्त हुआ फिर वीर कहाऊँ, कुछ भी करूँ,मुझे मिल जाएगी मेरी वो मधुशाला।।३।। काल पूँछता नित दिन मुझसे कहाँ गयी मेरी हाला, कहाँ गयी वो आग आँखों की,कहाँ गया मेरा प्याला, रोज़ रोज़ ललकार मुझे,कहता अब तो कुछ करतब दिखला, बता कहाँ है पड़ी हलाहल से भरकर वो मधुशाला।।४।। पूँछ रहा है खड़ा हिमालय,क्या क्या मैंने कर डाला छोड़ दिया क्यों समरभूमि को, क्यों पीता रहता हूँ प्याला , क्यों छोड़ा गर्वित हो लड़ना, हिमराज मुझे ये पूँछ रहा, क्यों आखिर मैं भूल गया हूँ जिसे था कहता मधुशाला।।५।। याद मुझे

कश्मीर

थी जन्नत एक जो ये सरजमीं , था जो एक ख्वाब हर दिल का   सियासत की कलम ने आज वहाँ दोज़ख लिख दिया है | कभी जो सर्द वादी थी हसीं , जहाँ हर दिन सुहाना था   सुलगती है वहाँ बस आग अब , हर घर जलता है | कभी खिलती जहाँ थी जिंदगी कुछ झूमकर मद में   है आज सराबोर वो खौफ़ से , मातम सा छाया है | कहो तुमको मिला क्या , लगा आग यहाँ ओ सियासतगर्द   तेरी चिंगारी से जल उठी अब ये जन्नत दहकती है |

मौत

मिलता ही नहीं कोई मुनासिब ठिकाना   इस दहर में सुकून से जीने को   हर तरफ़ बस बारूद के ढेरों पर जिंदगियाँ पड़ी हैं | हर तरफ़ खौंफ का आलम बिखरा हुआ है आबोहवा में हर ओर बस मौत भरी है | कभी जो हुआ करते थे मोहब्बत की खिश़्तों से सजाये आशियाने   इस आंतक के साये में मलबा बनकर पड़े हैं | किसे पुकारें मदद का कोई हाँथ नहीं दिखता नगर नगर के चौराहों पर सर कटी लाशें पड़ी हैं | कोई अमन का चिराग जलता हुआ नहीं दिखता हर तरफ़ आतंक का अंधेरा घना है | इससे बेहतर तो कज़ा कूबूल करना होगा ,  ऐसी ज़ीस्त से तो मौत भली है |