वो पासबाँ वतन के, जो कट गए वतन पे बाकी है कर्ज आज भी उनके लहू का हम पे| कोई शहीद-ए-आज़ाम, कोई शेर-ए-हिन्द था कोई बुहरूपी पंडित आज़ाद हो कर गुम था| सब छोड़ घर चले थे, घर हिन्द को बचाने माँ भारती की खातिर अपने कफन चढ़ाने| पर हाय रे ये मुल्क अहसाँ फरामोश निकला खादी तो याद है इसको, चरखा तो याद है इसको लेकिन कलम बसंती, पिस्तौल,खाकी भूला| भूला कलम वो जिससे भगत ने इंकलाब लिखा था भूला पिस्तौल जो खुद पर आज़ाद ने धरा था भूला वो खाकी सुभाष की जिससे ब्रिटेन तक डरा था| बस ले रखा है सब ने चरखे का ही सहारा जपते हैं बस अंहिसा, सब ने यही पुकारा| हैं भूल जाते सब शाहदत की कहानी जिसमें लहू से सीचीं आबाद हुई जवानी| सरकार चाहे कुछ भी करले,चाहे जो भी बताए शाहदत अमर रहेगी हमारे दिलों में यूँ ही समाए| है जोर भी कहाँ सियासत में जो सत्य को छिपाए हम तो क्रान्ति के यहाँ सदा गीत यूँ ही गुनगुनाएं| -रजत द्विवेदी
कलम की स्याही से हर पल नया अंगार लिखता हूँ