गीत गज़ल सब बीत गये,भूली सकल कहानी है
आज कलम में स्याह नहीं वो, जिसमें प्रेम रवानी है|
कलम उठी है आज लहू से गढ़ने को इतिहास नया
कागज़ पर बारूद उगल कर, लिखने को आगाज़ नया|
आओ देखूँ मैं भी कितना भरा है तुझमें शक्ति अपार
क्या डिगा सकती मेरी ये कलम, तेरी नन्ही तलवार?
क्या तेरे सब खेल सियासी इतनी शक्तिशाली हैं?
जो चुप करा सकें इस कलम को, जिसकी हुंकार भयकारी है|
माना तेरी सत्ता का बल मेरी कलम से भारी
पर मेरी ये कलम कम नहीं, उगलती सदा चिंगारी है|
जब जब कहीं होगा अंधियारा, जब जब अन्याय फैलेगा
कलम मेरी ये मशाल बनेगी, घर घर फिर उजियाला होगा|
जब भी कभी इस सकल जगत में नयी सृजन की दरकार होगी
कलम मेरी क्रान्ति उगल कर, जगत का संहार करेगी|
फिर बन कोई बीज सृजन का नयी जिंदगी लिख देगी
सारे जहाँ में जान फूँक कर, नयी उमंगें भर देगी|
-रजत द्विवेदी
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