अश्रु सिंधु को छोड़,समर में ले लाया कर में हाला,
भरा हुआ है आज वीरता के रस से मेरा प्याला,
छिड़क रहा हूँ पौरुष का बल चहु और अब रण में मैं ,
अग्निगंध सी महक उठी है आज मेरी ये मधुशाला।।१।।
भरी रगों में आग प्रखर जो, बना लिया उसकी हाला,
सुनकर नाद राग भैरव का, पी जाता हूँ विष का प्याला,
कभी इधर कभी उधर पग धरता,शौर्य के मद चूर हुआ,
जिधर भी देखूं रण में मुझको दिख जाती है मधुशाला।।२।।
विजयी समर की चाह लिए मैं रोज़ बनाता अपनी हाला,
सोच रहा मैं पियूँ हलाहल या पी जाऊँ अमर प्याला ,
रण जीतूँ या वीर गति को प्राप्त हुआ फिर वीर कहाऊँ,
कुछ भी करूँ,मुझे मिल जाएगी मेरी वो मधुशाला।।३।।
काल पूँछता नित दिन मुझसे कहाँ गयी मेरी हाला,
कहाँ गयी वो आग आँखों की,कहाँ गया मेरा प्याला,
रोज़ रोज़ ललकार मुझे,कहता अब तो कुछ करतब दिखला,
बता कहाँ है पड़ी हलाहल से भरकर वो मधुशाला।।४।।
पूँछ रहा है खड़ा हिमालय,क्या क्या मैंने कर डाला
छोड़ दिया क्यों समरभूमि को, क्यों पीता रहता हूँ प्याला ,
क्यों छोड़ा गर्वित हो लड़ना, हिमराज मुझे ये पूँछ रहा,
क्यों आखिर मैं भूल गया हूँ जिसे था कहता मधुशाला।।५।।
याद मुझे है किसे बनाया था मैंने अपनी हाला,
सुरा नहीं वो विष था रण का, पीता था जिसका प्याला,
आज भी मुझको चाह समर की, आज भी लड़ने को आतुर,
नित दिन खोज रहा मृत्यु को, जो है मेरी मधुशाला।।६।।
जीवन के सब रंग अनोखे,सभी रंग हूँ देख डाला,
देखें हैं बचपन में सपने ,चखा है यौवन का प्याला,
मात पिता भाई बंधू कुटुंब सबसे लाड लड़ाई है,
अभी खोजता हूँ वीरता की पा जाऊं मधुशाला।।७।।
समर वीर का शृंगार,पौरुष रगों की है हाला,
जो पी जाये आग प्रखर वो हो जाता है मतवाला ,
सब पीकर मदिरा मर जाते, वीर हलाहल पीता है,
मरकर भी अमर हो जाता है, पा जाता वो मधुशाला।।८।।
आज पियूँगा मैं भी अब वो अजर वीरता की हाला,
आग भरूंगा आग रगों में,पियूँगा फिर से विष का प्याला,
रग रग में भरकर चिंगारी आज दिवाली खेलूंगा
कर उजियाला चहुँ ओर मैं पा जाऊँगा मधुशाला।।९।।
-रजत द्विवेदी
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