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Showing posts from February, 2018

प्रेमिका को ख़त

क्या लिखूँ फ़साना इश्क का , कोई बात नहीं बचती है , इतना इंकलाब उगल चुकी है कलम मेरी , कि अब दवात नहीं बचती है | गर हुआ जन्म दुबारा मेरा , तो इतनी रज़ा मनाऊंगा , इंकलाब को छोड़ , तुझसे इश्क निभाऊँगा | तेरे माथे को चूम , अपने नाम का तिलक लगाऊँ ,  अपने लबों पर बस तेरा नाम सजाऊँगा | मगर वक्त नहीं है अभी अाँचल में छिप जाने का ,  धरती को बेरंग छोड़ तुझे कुमकुम तिलक लगाने का | गर पुनर्जन्म हुआ मेरा , तो तेरी बाहों में आऊँगा एक पल को क्या ताउम्र को , बस तेरा ही हो जाऊँगा | अभी सताती है मुझको पल पल मादरे वतन की याद , नहीं छोड़ सकता मैं इश्क के लिए इंकलाब | इबादत - ए - इश्क में अभी मेरे ये हाँथ नहीं उठते , ज़हन में बसे हुए क्रान्ति के जज़्बात नहीं मिटते | -रजत द्विवेदी 

जीवन संवाद

कोई लहर उठी हो सागर में भरकर जैसे कोई उमंग नयी  या खिलें कुसुम हों वृंद भूमि या दुर्गम घने कानन में| या कि सूरज फिर जाग उठा यूँ चीर तिमिर की छाती को  रे जीवन तेरी परिभाषा भी अलग अलग है सबके लिए| तू जैसे अमृत कलश कोई निकली हो सागर मंथन से  जिसको पिला कर सुर श्रेणी को जैसे दिया कोई दान अभय| या कि कोई बीज है तू इस जगति के नये सृजन का  और उस नये जगत में जैसे एक पूर्ण नयी संस्कृति के आगमन का| पर हे जीवन बता आज मुझको तेरी कोई अनुपम सीख  किस प्रकार मैं पहचानूँ तुझको, क्या है तुझे चाहने की रीत| बता आज कैसे मैं हो जाऊँ तेरा प्रेमी? किस प्रकार से सीखों मैं तेरे मधुर मधुर संगीत?  सुन पथिक एक बात राज़ की, मैं तुझसे कहती हूँ आज  जान ज़रा की क्या है मुझको प्रसन्न रखने का राज़| नहीं मुझे कोई लोभ संपदा,राजकाज या ख्याति का  मुझ को तो बस चाह प्रेम की, एक मनोहर साथी का| मुझे लालसा नहीं स्वर्ण की, ना रईस किसी थाती की  चाह मुझे बस उन्नत मस्तक, गर्व से फूली छाती की| सम्मानित जीवन हो जिसका, मौत भी उससे भय खाती है  नियति भी स्वयं दीर्घकाल तक उसकी कीर्ति गाथा गाती

शेरदिल

गीत गज़ल सुन सुन कर थक गया हूँ मैं अंहिसा के, कभी प्रशंसा गीत गाँधी के या कलमे नाम जवाहर के| अब बहुत हुआ पाखंड बस करो, कोई गीत नया अब गाओ सब उस बलिदानी आज़ाद राज का वीर बखान सुनाओ अब| बारूदों पर खेला करता था एक बांकुरा चन्द्रशेखर लिए क्रान्ति की मशाल हाँथ में, उजियाला करता घर घर| पंडित जी क्या खूब खेलते नगर नगर में छापामार इंकलाब का नारा लगाता, गोरों में छाता हाहाकार| कोई ऐसा नहीं हुआ जो कैद कर सके पंडित जी को बहुरूपों के महारथी इस वीर भारत के सुत को| मगर हाय, जब मृत्यु आ गयी तो भी आज़ाद था वीर खड़ा चन्द गद्दारों के कारण, कुत्तों से घिरकर सिंह खड़ा| परम वीर आज़ाद के आगे मौत भी घबराकर खड़ी रही देख त्याग फिर आज़ाद राज का, काल की आँखें भी रो पड़ी| लिए जो था संकल्प पंडित ने, अंतिम क्षण तक उसे निभाया था एक गोली मार स्वयं को आज़ाद कराया था| हाँथ न आया कभी सिंह वो गीदड़ गोरों से घिरकर जन्मा था जो आज़ाद रहा जो, आज़ाद ही वो हुआ अमर| उस बलिदानी की कथा क्यों आज सब भूले जाते हैं? जिसने ही आघात किया उससे क्यों वो नेता कहलाते हैं? एक बार अब अ

मृत्यु से संवाद....

ओ मोहरहित, निर्मम मृत्यु बता भला की कौन है तू? क्या बल ऐसा भरा तुझमें, जिससे डरता सकल जग यूँ कि जैसे कोई विकट शत्रु हो गया खड़ा दुष्कर गिरी सा जिस पर अब पाँव बढ़ाकर के जय प्राप्त करना मुश्किल हुआ| ओ अटल सत्य, अजय मृत्यु,एक भेद बता मुझको अब तू तू कालजयी सच होकर भी, क्या कभी डरी किसी से तू? क्या कोई ऐसा हुआ यहाँ जो तुझको तक भयभीत करे? क्या कोई ऐसा हुआ यहाँ जो काल को तुझसे जीत सके? ओ पथिक, हूँ मैं निर्मम मृत्यु कोई मोह नहीं मेरे मन में मैं अटल सत्य प्रकृति का, भय बनकर फैली जन जन में| हाँ,मैं एक दुष्कर मंज़िल सी हूँ जिसपर कोई पार न पा सकता मैं परम सत्य हूँ नियति का, जिसको ना कोई झुठला सकता| कालचक्र के फेरे में मैं सबके प्राण हरती हूँ, नये सृजन के लिए, जगत का संहार करती हूँ| मगर सत्य है यह भी कि मैं भी किसी से डरती हूँ एक बार किसी को छूने से पहले सौ बार सिसक कर ठहरती हूँ| कोई धनी नहीं, ना व्यापारी, ना ही कोई राजा है वो बस एक वीर मातृभूमि पर मरने वाला, भुजबल का अधिराजा है| जो समरभूमि में अडिग खड़ा नियति का फेर बदलता है काल के कपाल पर अपना इतिहास गढ़ता है|

समरभूमि

करो श्रृंगार मातृभूमि का , कुमकुम और कमल से ,  रग रग में भर कर चिंगारी , सीचों हृदय अनल से |  यही मनोहर क्षण सृजन का , यही समर की बेला ,  गढ़ने को इतिहास समर में लगा वीरों का मेला | सुनो कथा उस पुण्य भूमि , उस कुरूक्षेत्र के रण की ,  रक्खी गई थी नींव जहाँ पर,न्याय  और धर्म की |  सच है नयी जागृति हेतु पूर्ण शयन निश्चित है  सकल जगत के नये सृजन के लिए संहार निमित है | कुरुक्षेत्र रणभूमि सजी है बडे़ बडे़ भटों से ,  पार्थ , कर्ण , अभिमन्यु , भीम , भीष्म और सुयोधन से |  कोई कर रहा मान धनुष पर,कोई गदा के बल पर, कोई संभाले खड़ा खड्ग है, कोई भाल को धरकर।  एक तरफ़ है पांडव सेना , दूजी ओर कुरु हैं ,  एक तरफ़ हैं वीर दृष्टयद्मन , उधर द्रोण गुरु हैं |  इधर संग स्वयं नारायण , उधर भीष्म पितामह ,  धर्म के साथ खड़े हैं गिरधर , हैं वचनबद्ध पितामह | एक ओर है धर्मराज धर्मध्वजा को साधे ,  दूजी ओर सुयोधन बैठा अभिमान की पगडी बाँधें |  पापवंत दुशासन बैठा लिए कपट की गागर ,  जिस गागर को तोड़ना चाहें भ्राता भीम भृकोदर | एक ओर है सत्य खड़ा बीच में, घिर क

यदि लिखना है तो...........

यदि लिखना है तो संग्राम लिखो कोई वीरता का नया गान लिखो कोई पूँछे वीर होता है क्या तो चन्द्रगुप्त बलवान लिखो ।।१।। यदि लिखना है तो वेद पुराण लिखो कुछ गीता और कुरान लिखो कोई पूँछे धर्म होता है क्या तो गुरबानी और आज़ान लिखो ।।२।। यदि लिखना है तो राम लिखो पुरुषों में पुरुष महान लिखो कोई पूँछे पौरुष होता है क्या बस राम लिखो, बस राम लिखो ।।३।। यदि लिखना है तो कर्म लिखो सबसे महान ये धर्म लिखो कोई पूँछे कर्म होता है क्या एक फ़ौजी और किसान लिखो ।।४।। यदि लिखना है तो विज्ञान लिखो नित नए नए आयाम लिखो कोई पूँछे विज्ञान होता है क्या तो भाभा और कलाम लिखो ।।५।। यदि लिखना है तो बलिदान लिखो परहित सत्कर्म बखान लिखो कोई पूँछे बलिदानी होता है क्या तो सुभाष और आज़ाद लिखो ।।६।। यदि लिखना है तो इंकलाब लिखो नयी दुनिया का एक ख्वाब लिखो कोई पूँछे इंकलाब है क्या तो भगत सिंह का नाम लिखो ।।७।। यदि लिखना है तो प्रेम लिखो नयनों के मिलने का खेल लिखो कोई पूँछे प्रेम होता है क्या दो दिलों का अनुपम मेल लिखो ।।८।। यदि लिखना है तो खुद पर विश्वास लिखो एक

कविता

बेढ़ंग जिंदगी की अनकही कहानियों का  लयबद्ध सुरमयी बखान है कविता| आगाज़ से अंजाम तक,  जीवन का संग्राम है कविता| मशहूर से गुमनाम तक,  मुसाफिर की पहचान है कविता| क्रान्ति की चिंगारी भी है,  शान्ति का पैगाम भी है कविता| निर्मोही का बैराग भी है  प्रेमी का अनुपम प्यार है कविता| तुलसी का राम और  मीरा का श्याम है कविता| जीवन का संदेश है  मृत्यु का फरमान है कविता| सभी रंगों से सराबोर  जीवन का अनुपम गान है कविता| -रजत द्विवेदी

किस पथ पर पाँव बढ़ाऊँ मैं?

एक तरफ़ है खड़ी हिमालय सी अडिग चुनौतियाँ , दूजी ओर विशाल दुखों की असीम गहराईयाँ | बीच भँवर में फंसा , बस यही सोचता जाऊँ मैं किस पथ पर पाँव बढ़ाऊँ मैं ? एक तरफ़ है राख पुरानी भस्म हुए सपनों की , दूजी ओर जले चिंगारी नये भविष्य सृजन की | अब कपाल पर राख मलूँ या नया दीप जलाऊँ मैं किस पथ पर पाँव बढ़ाऊँ मैं ? एक तरफ़ कोई गीत सुनाता अमित शान्ति के सुर की , दूजी ओर कोई राग है गाता क्रान्ति और समर की | क्रान्ति गीत के सुर सिमरूँ या राग मल्हार गाऊँ मैं किस पथ पर पाँव बढ़ाऊँ मैं ? एक तरफ़ है कलम पड़ी और दूजी ओर पड़ी तलवार , इधर मिली शब्दों की थाती , उधर शक्ति की है भरमार | कागज़ पर इतिहास रचूँ या खड्ग उठा रण जाऊँ मैं किस पथ पर पाँव बढ़ाऊँ मैं ? -रजत द्विवेदी

तिरंगा

कुहासे में चमकता दिखा एक दीप्त ज्योति का सितारा    वो सूर्य नहीं , ना ध्रुव कोई , ना पृथ्वी का तारा | है जान अरबों लोगों की , वो मान गर्व हमारा वो सूर्य सा दीपित तिमिर को चीर कर निकला | बलिदानों से भरा , वीर शोणित से सींचा हुआ लहरा रहा नभ में आजा़द तिरंगा प्यारा | -रजत द्विवेदी