कोई लहर उठी हो सागर में भरकर जैसे कोई उमंग नयी
या खिलें कुसुम हों वृंद भूमि या दुर्गम घने कानन में|
या कि सूरज फिर जाग उठा यूँ चीर तिमिर की छाती को
रे जीवन तेरी परिभाषा भी अलग अलग है सबके लिए|
तू जैसे अमृत कलश कोई निकली हो सागर मंथन से
जिसको पिला कर सुर श्रेणी को जैसे दिया कोई दान अभय|
या कि कोई बीज है तू इस जगति के नये सृजन का
और उस नये जगत में जैसे एक पूर्ण नयी संस्कृति के आगमन का|
पर हे जीवन बता आज मुझको तेरी कोई अनुपम सीख
किस प्रकार मैं पहचानूँ तुझको, क्या है तुझे चाहने की रीत|
बता आज कैसे मैं हो जाऊँ तेरा प्रेमी?
किस प्रकार से सीखों मैं तेरे मधुर मधुर संगीत?
सुन पथिक एक बात राज़ की, मैं तुझसे कहती हूँ आज
जान ज़रा की क्या है मुझको प्रसन्न रखने का राज़|
नहीं मुझे कोई लोभ संपदा,राजकाज या ख्याति का
मुझ को तो बस चाह प्रेम की, एक मनोहर साथी का|
मुझे लालसा नहीं स्वर्ण की, ना रईस किसी थाती की
चाह मुझे बस उन्नत मस्तक, गर्व से फूली छाती की|
सम्मानित जीवन हो जिसका, मौत भी उससे भय खाती है
नियति भी स्वयं दीर्घकाल तक उसकी कीर्ति गाथा गाती है|
-रजत द्विवेदी
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