इतिहासों में लिखा जायेगा कभी यह भी अपराध। बिगड़ रहा है आज कलम और कागज़ का संवाद। एक दौर था जग का जब सामर्थ्य लिखाया जाता था। और प्रेम गीतों पर सहज ही मोती लुटाया जाता था। लेखन थी आराधना एक, वो मां भारती की वंदना थी। जननी जन्मभूमि थी और हिंदी उसकी अर्चना थी। रजत निशा में दीप जलाए रखते थे कलम पर आलोक, और बुझा जो दीप कभी तो लिख देते थे हम भी शोक। उदय प्रांत का एक दिवाकर और मैं दिनकर कलमकार। दोनों नित नित पुण्य विभा से जग को करते थे साकार। किन्तु आज क्या हाल हो गया लेखन की परिभाषा का। भेद नहीं पता चलता, क्या करते लोग हैं भाषा का। शब्द शब्द अशुद्ध हो गए, भाव कहां से व्यक्त करें। मोक्ष कहूं तो जग को लगता,"मरने को कहता है, अरे"! कहीं और विधाओं जैसे लेखन भी ना खो जाए। जो दुर्दशा हुई संस्कृत की, हिंदी की ना हो जाए। - रजत द्विवेदी
कलम की स्याही से हर पल नया अंगार लिखता हूँ