Skip to main content

Posts

Showing posts from September, 2019

कलम और कागज़

इतिहासों में लिखा जायेगा कभी यह भी अपराध। बिगड़ रहा है आज कलम और कागज़ का संवाद। एक दौर था जग का जब सामर्थ्य लिखाया जाता था। और प्रेम गीतों पर सहज ही मोती लुटाया जाता था। लेखन थी आराधना एक, वो मां भारती की वंदना थी। जननी जन्मभूमि थी और हिंदी उसकी अर्चना थी। रजत निशा में दीप जलाए रखते थे कलम पर आलोक, और बुझा जो दीप कभी तो लिख देते थे हम भी शोक। उदय प्रांत का एक दिवाकर और मैं दिनकर कलमकार। दोनों नित नित पुण्य विभा से जग को करते थे साकार। किन्तु आज क्या हाल हो गया लेखन की परिभाषा का। भेद नहीं पता चलता, क्या करते लोग हैं भाषा का। शब्द शब्द अशुद्ध हो गए, भाव कहां से व्यक्त करें। मोक्ष कहूं तो जग को लगता,"मरने को कहता है, अरे"! कहीं और विधाओं जैसे लेखन भी ना खो जाए। जो दुर्दशा हुई संस्कृत की, हिंदी की ना हो जाए। - रजत द्विवेदी

नर

खड़ा है आज नर क्यों खिन्न होकर? समूचे लोक से यूं भिन्न होकर। कहीं कुछ बात बदली है यहां क्या? मनुज की जात बदली है यहां क्या? क्यों जग से दूर होता जा रहा है? नहीं क्यों स्नेह सबका पा रहा है? था उसका दोष बस इतना ही कहना, नहीं कभी मौन हो अन्याय सहना। था बल उसमें कि सच को सच कहे वो। नहीं कभी झूठ की आश्रय गहे वो। मगर क्या खूब हुआ उपहास उसका। है दुष्कर अब तो लेना श्वास उसका। भला जो जग को यूं ललकारता हो। कलि से लड़ने को उच्चारता हो। कहां वो चैन से अब जी सकेगा? कहां जीवन का अमृत पी सकेगा? उसे तो अब हलाहल पीना होगा। स्वयं विषधर सा बनकर जीना होगा। है तपना अब उसे तो राम बनकर, मनुजता का अटल अभिमान बनकर। नहीं कोई और पथ बाकी है उसका। यहां पर कौन अब साथी है उसका? है जीना अब उसे तो पार्थ बनकर या मरना कर्ण सा निस्वार्थ बनकर। - रजत द्विवेदी