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Showing posts from December, 2019

स्वावलोकन

घनघोर निराशा हो मन में, उत्साह न हो जब जीवन में। थक गया हो अंतस क्रंदन से, या स्वेद रुक गए स्यंदन से। उस क्षण रुक जाना गंभीर होकर। सोचो क्या थे, क्या हो गए तुम? ओ वीर कहां पर खो गए तुम! सब बंधु बांधव छूटे हों, अपनों से रिश्ते टूटे हों। निकले सब वादे झूठे हों, अश्रु छुप छुप कर फूटे हों। उस क्षण रुक जाना सहजता से, सोचना कहां कुछ चूक हुई। अपनों से दूर क्यों हो गए तुम? ऐ यार कहां पर खो गए तुम! प्रियसी भी तुमसे रूठ पड़े। सारी बातें जब छूट पड़ें। मन की आशाएं टूट पड़ें। मुख से रुदन भी फूट पड़ें। उस क्षण रुक जाना स्निग्ध होकर। सोचो क्यों प्रेम तजा तुमने? ओ प्रेमी कहां पर खो गए तुम! -रजत द्विवेदी

कर्ण- कृष्ण संवाद

मैत्री का मूल्य चुकाऊं कैसे? उस पर मैं पीठ फिराऊं कैसे? केशव, सुयोधन वह भ्राता है, जिससे जन्मों का नाता है। मुझ पर न दया जग करता था। केवल कटाक्ष ही करता था। तब एक सुयोधन ही तो था, जिसको मैं हृदय से प्रिय रहा। माना सहोदर पांडव मेरे। हैं अजय वीर बांधव मेरे। दुर्योधन पर है उनसे बढ़कर। सुख दुःख का मेरा है सहचर। मैं उसका त्याग करूं कैसे? सुख में मैं स्वास भरूं कैसे? दुर्योधन बस एक सहारा है। मेरे हिय का उजियारा है। वरना क्या बस तम ही है हिय में। है घृणा और क्रंदन हिय में। केशव, जो सुयोधन ना होता, तो कैसे फिर ये कर्ण जीता? अब रोम रोम बस उसका है। जीवन पर हक अब उसका है। मरना जीना अब सब उस संग। हैं एक हृदय, चाहे दो अंग। केशव, आप तो जग के स्वामी। घट घट में बसते अन्तर्यामी। जिस पक्ष भी आप हो जायेंगे, वो सदा सुयश ही पायेंगे। पांडवों को कौन हरा सकता? हरि जहां, वहां काल कब आ सकता? किन्तु सुयोधन अकेला है। उस संग ना महाभट मेला है। मैं ही उसका सेवक और मित्र। मैं ही वीरता का शुभ चित्र। मुझको ही देख वह जागा है। वरना मुझसा ही अभागा है। दुर्भाग्य भला और क्या होग