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Showing posts from December, 2017

योद्धा

निराशा के गर्त में डूबते सितारे,है गहराता हर पल ये अधियारा,  हूँ निकला रौशनी करने जगत में, लिए मैं जुगनुओं का सहारा| ना किश्ती की परवाह मुझको, ना मिलता है कोई किनारा,  हूँ लड़ रहा मैं ज्वार से, लेकर आँधियों का सहारा| एक विकराल गर्जना किये, जैसे हो पौरुष ने पुकारा,  गरल का पान करने को, जैसे नीलकण्ठ रूप हो धारा| निशा से भोर तक कि जैसे, हूँ करता निशचर सा गुजा़रा,  या कि दिनकर सा उदित होता और चमकाता जग सारा| -रजत द्विवेदी

मध्य रात्रि का चाँद....

सर्द हवाओं से घिरे बादलों के बीच, दिखा वो मध्य रात्रि का चाँद  हज़ारों सितारों के बीच चमकता,  ठंडी स्वच्छ चाँदनी देता हुआ लाखों गर्त में डूबे जुगनुओं को  जैसे किसी प्यासे को नदी का किनारा मिल गया हो| कारे कारे गगन पर जगमगाता,  दिखा वो मध्य रात्रि का चाँद  अधूरे सपनों का कारवाँ लिए,  कई टूटे दिलों में नये ख्बाव जगाता हुआ  जैसे सूखे बंजर भूमि पर किसी ने उम्मीदों के बीज बो दिए हों| घने जंगलों में अमावस की रात में उगता  दिखा वो मध्य रात्रि का चाँद  बेचैन मन वाले बदन में तंद्रालस भरता,  कुछ वक्त और ठण्ड से सिमट कर सो जाने को मजबूर करता  जैसे जंगल में जीवों पर आलस का मंतर फूँक दिया हो| नये दिन की उम्मीद जगाता,  दिखा वो मध्य रात्रि का चाँद  नयी भोर के स्वागत के लिए,  गहराते तिमिर को हर पल कमज़ोर करता हुआ  जैसे देवताओं को भोर भ्रमण का न्यौता देता हो| -रजत द्विवेदी

देखो हुआ सवेरा... 

देखो हुआ सेवरा, है सिमट रहा अंधेरा  गगन पर उड़ रहे पक्षी, हैं खोजते नया डेरा| कहीं भवरे चहकते हैं, नयी कलियाँ खिलती हैं कहीं पर नाचते मयूर, कहीं तितलियाँ उड़ती हैं| नया दिन है, नये दिन में नयी उमंगों ने है घेरा देखो हुआ सवेरा, है सिमट रहा अंधेरा| नये प्रकाश से भरकर कि अब यह शर चमकता है  तिमिर की कैद से छूटा कि दिनकर खूब हँसता है| कहीं अब मौज में बहती नदी भी मुस्कुराती है  कहीं सागर की लहरों में मछलियां गीत गाती हैं| बडे़ अभिमान से हिमालय भी ज़रा अब इतराता है  नया आलोक में उसका कि कद बढता जाता है| है चहु ओर हरियाली,खुशियों ने किया बसेरा  देखो हुआ सवेरा, है सिमट रहा अंधेरा| -रजत द्विवेदी

पथिक

पथिक, पथ पर खड़ी कठिनाइयों को झेलना तू सीख, समर सम ज़िंदगी तेरी, तू लड़कर जीतना अब सीख| न एक पल हार अब तू मान, विजय की माँग ना तू भीख,  तू चलता ही चला जा, खुद ही तू बना अपनी लीक| कि क्षण है अब दिखाने का, कि तुझमें जो़र कितना है,  कि क्षण है अब बताने का, विजय का कोष किसका है|  नहीं ये क्षण बताने का, यहाँ पर दोष किसका है,  समर को जीत ले तू अब समर संघोष होता है| भले इस सोैर मंडल सम जगत में कई सितारे हैं  कोई एकल चमकते हैं, कोई सूरज को प्यारे हैं,  कि तू टूटे हुए कोई यहाँ ध्रुव सा चमकता है सभी तारों से भी बढ़कर तेरा आलोक दिखता है| कि अब क्षण वीरता का है, ध्येय का ध्यान कर तू अब,  भूलाकर सब चिन्ताएँ, कि बस लक्ष्य साधो अब| समय का चक्र चलता है कि अब इतिहास लिख दे तू,  कि अब काल के मस्तक पर अपना नाम गढ़ दे तू| -रजत द्विवेदी

अधियारा.............

रात के अधियारे में, एक भटकती राह पर न जाने कितने भेड़िये, फिर रहे थे ताक में,  अा फसीं जब मासूम जान इक, बीच उनके जाल में,  लूट ली अस्मिता उसकी, मौज के फिराक़ में | पर पूछो तो ज़रा उस बदनसीब जान से,  क्या खोया उस रात उसने,  रूह तो काँप गई ही थी,  साँसे भी थम गई सी थी | पर और क्या हुआ कभी सोचा है??  क्या हुआ हाल उसके माँ-बाप का?  क्या हुआ हाल उसके भाई-बहनों का?  क्या हुआ हाल उसके प्रेमी का?  जो लाज गई तो क्या अब उसको निष्ठुर समाज अपनाएगा? सीता या पाँचाली जैसे या उसे भी ठुकारएगा? सच है शायद पुरुष हो कर मैं ये सब नहीं कह सकता हूँ | पर बतलाओ हैवानियत को, मैं भला कैसे सह सकता हूँ | ये कैसी मर्दाना शक्ति है, जो पल भर ही टिक सकती है?  मौज करने को आतुर हैं, पर जिम्मेदारियाँ ना ले सकती हैं?  कहने को यदि पुरुष हो कहते, तो भला कहो पुरूषार्थ है क्या?  बल से अगर प्रेम हो पाते, तो ऐसे प्रेम का अर्थ है क्या?  द्रौपदी तो बहुत यहाँ हैं, हैं बहुत दुशासन जैसे भी,  पर मैं पूछ रहा हूँ आज बता कौन है राम यहाँ?  करता ज्यादती मनुज पर, नारी का तुझको मान नहीं

एक शून्य से निकला...............

एक शून्य से निकला हूँ और एक शून्य में ढ़लता,  सूर्य की किरणों के जैसे रोज़ मैं चलता,  लिखता चला जाता गगन पर रोज़ नया सवेरा,  तिमिर को चीर कर निकला,कि अब छट गया है अंधेरा| उत्साह से भरकर सवेरा रोज़ करता हूँ,  काल के मस्तक पर अपनी राख मलता हूँ,  जन्म लेता रोज़, रोज़ फ़ना भी होता हूँ,  शुन्य से निकला, शुन्य में ही रोज़ ढ़लता हूँ| -रजत द्विवेदी

ये क्या गली है........

ये क्या गली है, ये क्या नगर है,  रात के अंधेरे में गहराता कोई कहर है| सिमटी हुई हैं सांसे, ना जाने कैसा डर है,  ना जिस्म का पता है ना जान की खबर है| कब जाने क्या हो जाये, किसको यहाँ फिकर है,  कुछ चैन से हैं सोते, कुछ नींद को तरसते| कुछ गुम हैं होश खोकर, मदमस्त हो नशे में,  कुछ हैं तडपते निस दिन, अंगार हैं बरसते | कोई नहीं सहारा कोई न हमसफर है,  है रात का अंधेरा सुनसान मंज़र है| है खौंफ मरने का, जिंदगी बेसबर है,  ये गली है दोस्तों, कैसे ये नगर है| -रजत द्विवेदी

चित्रकूट

विंध्य क्षेत्र में विस्तृत फैला, कहीं एक उपवन है, सुन्दर हरी लताओं से,भरा हुआ कानन है। कहीं डाल पर कोकिल गाती,मधुर गीत सुनाती, कहीं मयूर नाँच नाँच कर, सावन का संदेसा लाती। मधुर गंध से महक रहा, चारों ओर ये वन है , सूखी मिट्ठी पर बारिश का हुआ जैसे आगमन है। कहीं खिली हों नयी कलि,भँवरा गनगुनाता हो, या की नयी फ़सल उगाकर, कृषि मुस्काता हो। चहुँ ओर सौहार्द भरा है चहुँ ओर ख़ुशहाली है, वन में जैसे रोज़ मनाते खुशियों की दिवाली है।  संत समागम करते दीखे, वन है या कोई धाम, विचित्र भू भाग भारत का, चित्रकूट है नाम। इसी अनोखे सुन्दर वन में, कहीं एक कुटिया है, जहाँ विराजे भाई लखन संग रघुवर और सिया हैं। आलौकिक नभ में हो चमके जैसे कोई सितारा, शोभा इस कुटिया की वैसी, है चहुँ ओर उजियारा। नियति का ये खेल गज़ब है, श्री राम हैं वन में, अवध छोड़ वन वन हैं फिरते, ना जाने क्या गम है।  एक कुटिल का कपट चला और साधु बन गए भूप, पितु आज्ञा से वन वन भटके, बदल लिया रंग रूप।      सुन्दर भुजा,अलौकिक मुख है, साधु वेश है धारा, सिया लखन संग राम सुहाते, यों चित्