एक शून्य से निकला हूँ और एक शून्य में ढ़लता,
सूर्य की किरणों के जैसे रोज़ मैं चलता,
लिखता चला जाता गगन पर रोज़ नया सवेरा,
तिमिर को चीर कर निकला,कि अब छट गया है अंधेरा|
उत्साह से भरकर सवेरा रोज़ करता हूँ,
काल के मस्तक पर अपनी राख मलता हूँ,
जन्म लेता रोज़, रोज़ फ़ना भी होता हूँ,
शुन्य से निकला, शुन्य में ही रोज़ ढ़लता हूँ|
-रजत द्विवेदी
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