निराशा के गर्त में डूबते सितारे,है गहराता हर पल ये अधियारा,
हूँ निकला रौशनी करने जगत में, लिए मैं जुगनुओं का सहारा|
ना किश्ती की परवाह मुझको, ना मिलता है कोई किनारा,
हूँ लड़ रहा मैं ज्वार से, लेकर आँधियों का सहारा|
एक विकराल गर्जना किये, जैसे हो पौरुष ने पुकारा,
गरल का पान करने को, जैसे नीलकण्ठ रूप हो धारा|
निशा से भोर तक कि जैसे, हूँ करता निशचर सा गुजा़रा,
या कि दिनकर सा उदित होता और चमकाता जग सारा|
-रजत द्विवेदी
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