विंध्य क्षेत्र में विस्तृत फैला, कहीं एक उपवन है,
सुन्दर हरी लताओं से,भरा हुआ कानन है।
कहीं डाल पर कोकिल गाती,मधुर गीत सुनाती,
कहीं मयूर नाँच नाँच कर, सावन का संदेसा लाती।
मधुर गंध से महक रहा, चारों ओर ये वन है ,
सूखी मिट्ठी पर बारिश का हुआ जैसे आगमन है।
कहीं खिली हों नयी कलि,भँवरा गनगुनाता हो,
या की नयी फ़सल उगाकर, कृषि मुस्काता हो।
वन में जैसे रोज़ मनाते खुशियों की दिवाली है।
संत समागम करते दीखे, वन है या कोई धाम,
विचित्र भू भाग भारत का, चित्रकूट है नाम।
इसी अनोखे सुन्दर वन में, कहीं एक कुटिया है,
जहाँ विराजे भाई लखन संग रघुवर और सिया हैं।
आलौकिक नभ में हो चमके जैसे कोई सितारा,
नियति का ये खेल गज़ब है, श्री राम हैं वन में,
अवध छोड़ वन वन हैं फिरते, ना जाने क्या गम है।
एक कुटिल का कपट चला और साधु बन गए भूप,
पितु आज्ञा से वन वन भटके, बदल लिया रंग रूप।
सुन्दर भुजा,अलौकिक मुख है, साधु वेश है धारा,
सिया लखन संग राम सुहाते, यों चित्रकूट ही जग सारा।
करते वास हैं मुनियों जैसे, नहीं लालसा मणियों की,
सुखी दिखे सूखा ही खाकर, चाह नहीं पकवानों की।
उधर व्यथित थे भरत कुमार सुनकर ये राम कहानी,
कोस रहे कैकेई कुटिल,मैं नहीं तेरा सुत रानी।
क्यों घोला तूने विष ये,क्यों राम को भेजा वन में ?
सूना हुआ ये राजभवन,कुल का दीपक है वन में।
चले भरत वन को जाते हैं, कर राम को सुमिरन,
राम ही होंगे अवध के राजा, ठान लिया है अब मन।
ढोल नगाड़े साज सजावट लिए हैं वन को जाते,
राजमुकुट ले गुरु वशिष्ठ को साथ लिए हैं आते।
चित्रकूट पहुंचे भरत, श्री राम प्रभु से मिलते,
भरत मिलाप हुआ रघुवर का, वन में फूल यों खिलते।
भरत मनाते राम लखन को, चलो भैया अवध को,
क्षमा करो मेरी जननी को, ग्रहन करो अवध को।
राम कहें, हे भारत दुलारे पितु आज्ञा में बधा हूँ,
वन जाना ही नियति का लेखा, मैं क्या कर सकता हूँ।
भरत कहे, हे राम यदि, अब यही आपकी इच्छा है,
दे दो वचन एक राम मुझे, ये भरत मांगता भिक्षा है।
चौदह बरस से एक क्षण भी ज़्यादा अगर विलम्ब किया,
प्राण त्याग दूँगा मैं राम,ये लो मैंने अब प्रण किया।
मत करना हे राम विलंब बस यही वचन मुझको दे दें ,
अच्छा चलता हूँ अवध को, अपनी पादुका मुझे दे दें।
राम चरण पादुकाओं में देख तुम्हारी सूरत मैं,
राज काज सम्भालूंगा, बांट तुम्हारी देखूँ मैं।
तुम आना जब राम अवध को, राज्य तुम्हरा तुम लेना,
मुझे तो बस अपने चरणों में, राम सदा को कर लेना।
चित्रकूट की क्या सुन्दर अलौकिक छठा थी वो,
जब राम लखन भरत रिपुसूदन मिलते अंतिम क्षण को,
चित्रकूट ये पुण्य धरा है राम भरत का प्रेम संगम।
कठिन है अब कहें कुछ और, करें भला और क्या वर्णन।
-रजत द्विवेदी
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