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Showing posts from August, 2016

आल्हा वीर रस

आवा बन्धु,आवा भाई सुना जो अब हम कहने जाए। सुना ज़रा हमरी ये बतिया, दै पूरा अब ध्यान लगाय। कहत हु मैं इतिहास हमारा जान लै हो जो जान न पाए।   जाना का था सच वह आपन जो अब तक सब रहे छुपाय। जाना का था बोस के सपना,जो अब सच न है हो पाए। जान लो का था भगत के अपना, जो कीमत मा दिए चुकाय। जाना काहे आज़ाद हैं  पाये वीर गति अरु बीर कहाय। जान लो काहे शेर मर गए ,हो गए गीदड़ सिंह कहाय ।।१॥ ये आल्हा बरनन है उनखर,जो भारत के लाल कहाय। बड़ी अनोखी उनखर गाथा,हमके उनखर याद दिलाय। उन जोधन के राष्ट्रप्रेम के कोउ प्रेमी पार न पाए। ऊ मतवाले अलबेले थे,अपना ऋण जे दिए  चुकाय। पहिन लिहिन सब कफ़न बसंती, वीरगति को पाना चाय। एक से एक भयंकर जोधा,बरछी तीर कटार के नाइ। एक से एक विद्वान पुरोधा जो भक्ति का गीत सुनाय ।।२॥ बाजत रहे संख समर के,देत सुनाई वीर पुकार। रणभेरी गूँजी थी अइसन,उत्तेजित होते नर नार। करमभूमि फिर धरती बन गई ,होवत रहे वार पे वार। रंगी खून से धरती माता, बीर सुतन के होत संघार। वह थे बीर बाँकुरे प्यारे, जो जीते थे बाज़ी  मार। फिर भी कइसे  कह देते हो, चरखा ही है विजय दिलाय  ? जान लै को था सच्च

कैसे खुद को आजा़द कहूँ?

कैसे खुद को आजा़द कहूँ ? मैं युगों से जीवित भारतवर्ष , मैं दीर्घकालिक आर्यावर्त हूँ आज पडा़ असमंजस में , कैसे खुद को आजा़द कहूँ ?  देखो मेरे इन पुत्रों को , देखो इनकी दुर्दशा हुई , कैसे मुरख बन बैठे हैं , खुद आपस में ही भिड़ते हैं , नाम , धरम , जाति खातिर , स्वयं की शान्ति हरते हैं | ना पढी़ होगी किसी ने भी रामायण , महाभारत , कुरान ना पढी़ होगी किसी ने भी बाइबिल या गुरुग्रंथ महान , फिर भी खुद पर इतराते हैं , कहते खुद को सर्वस्व महान | सोच रहा जो होता काल , तो क्या मै कहता तुलसी को , क्या कहता मै वेदव्यास को , क्या कहता गुरु नानक को , जो था उन ने प्रचार किया , सौहार्द शान्ति का जग में , उसको ये मुरख भूल गए , हैं लड़ते लड़ते कट मरते , भेड़चाल के मुरख ये कहलाते हैं मेरे ही लाल , निजी स्वार्थ से लड़ते हैं , बहा रहे हैं रंग लहु लाल | बर्बाद है होता नाम धर्म का , जग में मैं अब शर्मिंदा हूँ कहो ज़रा कैसे कह दूं , कैसे खुद को आजा़द कहूँ ? फैली हुई है हर दिसि में ये हवा घृणा , अज्ञानता की अनपढ़ नेता हैं बने हुए , कतार है शिक्षित दासों की | भूल के मेरे व

राष्ट्रप्रेम कब जागेगा ?

मातृप्रेम भी भोग लिया   पितृप्रेम भी भोग लिया   अपनी प्रौढ़ावस्था में   मित्रप्रेम भी खूब चखा   दहलीज़ जवानी की छूकर   अब मिथ्यप्रेम में पड़ रहा   पर मुझको तू बतला साथी राष्ट्रप्रेम कब जागेगा ? बचपन की ठिठोलियों से   तूने सबका मन मोह लिया   अपनी अल्हड तरकीबों से   अपना मतलब भी सिद्ध किया   अपना लालसाओं को   तूने हमेशा पूर्ण किया   तूने सारे क़र्ज़ चूका   खुदको बंधन से मुक्त किया   पर ऋण जो तुझपर धरती का   वो ऋण आखिर   आखिर कब तू चुकाएगा ? देख ज़रा इस धरती को   देख ज़रा इस संस्कृति को   कितनी आज यें पीड़ित है   जर जमीन के चक्कर में   घर क्या अब तो राष्ट्र भी खंडित है   धर्म के ठेकेदार बने मूरख   पढ़े लिखे मजबूर हुए   जो सिद्धि हम सबने पाई थी   जो सबख हमने सीखे थे   कुछ चंद धूर्तों के कारण   वो सब अब चकनाचूर हुए   आज सुनो यदि कहीं भी तुम   बस रुदन सुनाई देता है   अपनी भारतमाता को अब   बेटा गाली देता है   मातृभूमि को खंडित करने   अपने ही द्रोही बनते है   जन जन की जां लेने वाले   आतंकी हीरो बनते हैं   बोस भगत को भूल सभी   कुछ द्रोही को याद सदा करते   ज