है मचा हुआ फिर आज नगर कोलाहल, हर डगर डगर से निकल आए हैं जन जन है कौन ये कि जो निकल भीड़ से आया? जिसने है सारे नगर में रंग जमाया। मुख पर सूरज का तेज,भुजा में बल है। जिसके शर में बहती एक आग प्रबल है। है कर में धन्वा लिए खड़ा यों रण में, ज्यों वीरभद्र का रूप धरा शंकर ने। मस्तक पर चमक रही है कनक प्रभा सी, जो दर्प दिखाती सूर वीर प्रतिभा की। कानों में चमक रहे हैं कुंडल स्वर्ण के, आती सुगंध फूलों की जिसके तन से। मानो खिलता हो पुष्प कोई उपवन में, या कि कोई खार निकल आया हो वन से। मुख पर कोमलता, शर में बल पलता है, इस शूरवीर का परिचय नहीं मिलता है। जैसे दावानाल कोई सुलग आई जंगल में, सूखे पत्तों के प्रबल अग्निगंधक से। या कि कोई लावा फूट निकल हो आया, जिसमें पौरुष का अनुपम दृश्य समाया। ऐसा ही था वो वीर लाल कुंती का, पांडवों का ज्येष्ठ वो कर्ण नाम था जिसका। था रहा छद्म ही उसका जीवन सदा को, कोई देख न पाया उदित सूर्य प्रभा को। आया जब वो सूर्य चीर कर तम को, सब रहे दंग देखकर उसको एक पल को। कुरूराज कुटुंब के, नगर के सब नर नारी, आ पड
कलम की स्याही से हर पल नया अंगार लिखता हूँ