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Showing posts from October, 2018

रंगशाला

है मचा हुआ फिर आज नगर कोलाहल, हर डगर डगर से निकल आए हैं जन जन है कौन ये कि जो निकल भीड़ से आया? जिसने है सारे नगर में रंग जमाया। मुख पर सूरज का तेज,भुजा में बल है। जिसके शर में बहती एक आग प्रबल है। है कर में धन्वा लिए खड़ा यों रण में, ज्यों वीरभद्र का रूप धरा शंकर ने। मस्तक पर चमक रही है कनक प्रभा सी, जो दर्प दिखाती सूर वीर प्रतिभा की। कानों में चमक रहे हैं कुंडल स्वर्ण के, आती सुगंध फूलों की जिसके तन से। मानो खिलता हो पुष्प कोई उपवन में, या कि कोई खार निकल आया हो वन से। मुख पर कोमलता, शर में बल पलता है, इस शूरवीर का परिचय नहीं मिलता है। जैसे दावानाल कोई सुलग आई जंगल में, सूखे पत्तों के प्रबल अग्निगंधक से। या कि कोई लावा फूट निकल हो आया, जिसमें पौरुष का अनुपम दृश्य समाया। ऐसा ही था वो वीर लाल कुंती का, पांडवों का ज्येष्ठ वो कर्ण नाम था जिसका। था रहा छद्म ही उसका जीवन सदा को, कोई देख न पाया उदित सूर्य प्रभा को। आया जब वो सूर्य चीर कर तम को, सब रहे दंग देखकर उसको एक पल को। कुरूराज कुटुंब के, नगर के सब नर नारी, आ पड

विजेता

गर्त में डूबते सितारे कौन पूछे ? अम्बर से टूटते तारे कौन पूछे ? उदित उस सूर्य का सब लोहा माने , यहां ज़िन्दगी से हारे को कौन पूछे ? भले इस संसार तक ही जय की चमक है , भले उस पार कीर्तियाें की ना कुछ दमक है। मगर सब तो यहां एक होड़ में हैं , एक एक सीढ़ी विजय की जोड़ते हैं। यहां जो जीतता वो नभ का सितारा , यहां जो क्षीण है वो जग से हारा। कि है पहचान तेरी उस अनल से , बहा करती सदा जो तेरे बाहुबल में। नहीं कुछ और परिचय है मनुज का , विजय ही माप है यहां तेरे पौरुष का। जो तू जीता समर तो मिलती ख्याति , सहज यूं ही कभी ना कीर्ति आती। है मिलती जग में करुणा वीर को ही , सहानुभूति हारे को ना कभी भी। हैं करते मित्रता सब तब ही तूझसे , जो दिखती वीरता की दर्प तुझमें। भले ही जीत हार सब मिथ्य ही है , मगर इस संसार का ये सत्य ही है। बली को सदा मिलता कमल है , पराजित तो सदा ही कीच में है। है अब तो तुझको ही निश्चय है करना , कि तुझको चाहिए कंकड़ या सोना। विजय से झूम कर जग में जीना , कि या की हारकर है विष को पीना। -रजत द्विवेदी 

पौरुष

स्वास स्वास में नई आंधियां नया जन्म जब पाती हैं और रगों में अमित अनल की धाराएं चल जाती हैं, कतरा कतरा लहू ज्वार की लहरों से भर जाता है, तभी मनुज के पौरुष का बल अभय अजय हो जाता है। कितने सिंहों का बल देखो फिर उस नर में आ जाता है, छोड़ आलस्य और भोग विलास जो रण में खड़ग उठाता है, कितने गजराजों की चिंघाडें भी फिकी पड़ जाती है, उस नर के कंठ कमल से जब जयनाद फूट कर आती है। बंजर भूमि पर भी एक नया सृजन का अंकुर फूट जाता है, नर जब अपने कर्म के बल से धरती पर हल चलाता है। और उसके मन में पलते सब दुख,संशय मिट जाते हैं, चहुं ओर सब लोग उस नर का विजय गीत ही सुनाते हैं। राख से उठकर ख़ाक बनने तक जो निज कर्मों में लीन रहा, जग की सारी पीड़ाओं को जिसने वीरता से सहा, वो मनुज मरण के बाद भी जग में सदा सदा को अमर हुआ, औरों के पथ दर्शन हेतु उसका जीवन फिर धर्म बना। -रजत द्विवेदी