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रंगशाला

है मचा हुआ फिर आज नगर कोलाहल,
हर डगर डगर से निकल आए हैं जन जन
है कौन ये कि जो निकल भीड़ से आया?
जिसने है सारे नगर में रंग जमाया।


मुख पर सूरज का तेज,भुजा में बल है।
जिसके शर में बहती एक आग प्रबल है।
है कर में धन्वा लिए खड़ा यों रण में,
ज्यों वीरभद्र का रूप धरा शंकर ने।


मस्तक पर चमक रही है कनक प्रभा सी,
जो दर्प दिखाती सूर वीर प्रतिभा की।
कानों में चमक रहे हैं कुंडल स्वर्ण के,
आती सुगंध फूलों की जिसके तन से।


मानो खिलता हो पुष्प कोई उपवन में,
या कि कोई खार निकल आया हो वन से।
मुख पर कोमलता, शर में बल पलता है,
इस शूरवीर का परिचय नहीं मिलता है।


जैसे दावानाल कोई सुलग आई जंगल में,
सूखे पत्तों के प्रबल अग्निगंधक से।
या कि कोई लावा फूट निकल हो आया,
जिसमें पौरुष का अनुपम दृश्य समाया।


ऐसा ही था वो वीर लाल कुंती का,
पांडवों का ज्येष्ठ वो कर्ण नाम था जिसका।
था रहा छद्म ही उसका जीवन सदा को,
कोई देख न पाया उदित सूर्य प्रभा को।


आया जब वो सूर्य चीर कर तम को,
सब रहे दंग देखकर उसको एक पल को।
कुरूराज कुटुंब के, नगर के सब नर नारी,
आ पड़ी राजकुल पर विपद एक भारी।


ललकार रहा था कर्ण रंगभूमि में,
आतुर अर्जुन को मिला देने भूमि में।
'है जितना तेरा सुयश, मिलाऊं मिट्टी में,
करदूं चट्टानों को पत्थर चुटकी में'।


है अगर वीर तो अर्जुन सामने आओ,
मुझको भी तो अपनी वीरता दिखाओ।
माना धुरंधर वीर धनुर्धर तू है,
जिस पर करता अभिमान समग्र कुरु है।


लेकिन होकर यश से मद जो चलते हैं,
छोटे मोटे जयगानों में जो पलते हैं।
उनका गौरव नहीं रहता है सदा को,
सांझ होते ही छोड़ता है सूर्य प्रभा को।


ज्यों तुझमें थोड़ी शक्ति, थोड़ा भी बल है,
बहती यदि शर में थोड़ी भी आग प्रबल है।
तो कर अपनी धन्वा को अब वरण तू,
तुझको पुकारता हूं, अब आ रण में तू।


सुनकर पुकार अर्जुन की भौहें चढ़ आईं,
जाने को रंगभूमि में, उसने आतुरता दिखाई।
रोका कृप ने,'हे पांडुपुत्र रुक जाओ',
पहले इसके नाम का तो पता लगाओ'।


हो राजपुत्र तुम नहीं लड़ सकते यूँ ही किसी से,
ज्योति हो कुल के, ना तुल सकते जुगनू से। 
हे वीर कहो क्या नाम धाम है तुम्हारा?
किस कुल के हो, किस घर का हो उजियारा?


है पिता कौन? माता हैं कौन तुम्हारी?
क्या धर्म कर्म, क्या जाति कहो तुम्हारी?
यों ही न तुम लड़ सकते राजसुतों से?
पहले बतलाओ जन्मे हो तुम किस कुल में ?


हो क्षुब्ध ह्रदय से कर्ण व्यथा से बोला,
रटता है क्यों ये समाज, बस जाति जाति का बोला।
काले मन के ये लोग क्यों न हैं लज्जाते?
जो धर्म के नाम पर बस जाति की तूती बजाते?


मैं क्या जानू क्या नाम जाति का मेरे,
मेरा परिचय बस है भुजंग ये मेरे।
मेरे कुण्डल और कवच मेरे अपने हैं,
जिनसे चमक कर नक्श मेरे दिखते हैं। 


अजब हाल इस जग का मुझे दिखता है,
कायर समाज ये जाति के पीछे छिपता है। 
जाति को ढाल बनाकर सभी चलते हैं,
झूठे सुयश की छाव में सब पलते हैं। 


ये सब सुनकर फिर सुयोधन सामने आया,
खुश होकर फिर उसने राधेय का जयकार लगाया।
'हो वीर बहुत तुम नहीं शूर और कोई तुझसा,
देखा तुझको, कोई बड़भागी नहीं है मुझसा'। 


सच ही तो है कृप,कहिये क्या धर्म होता है,
इस जग में जाति के नाम पर, सदा धर्म रोता है। 
हो पूँछ रहे गर जाति आप राधेय की?
तो पहले कहो ये पांडव संतान हैं किसकी?


जाति जाति करते करते जो चलते हैं,
जाने ना क्यों लज्जा से कभी गलते हैं?
ज्यों कठिन जांनना होता है मुख नदियों का,
त्यों ही दुष्कर है जाति जानना वीरों का। 


गर राजपुत्र या क्षत्रिय होना है ज़रूरी,
तो सुने आज ये जग अब घोषणा मेरी।
मैं अंग देश का राज इसे देता हूँ,
इस वीर हेतु एक दान अमर करता हूँ। 


सुनकर सुयोधन को,कर्ण चकित हो आया,
इतनी करुणा से कर्ण का अंतः भर आया।
गल गया कर्ण फिर थोड़ा खुद से लजाकर,
भला हुई कैसे इतनी भी किरपा उसपर। 


भरकर करुणा से फिर बोल उठा दुर्योधन,
'होऊंगा मैं सुभागी,गर करे मुझे तू ग्रहन'
कह उठा कर्ण हे मित्र आज से हम दो,
जैसे मानो एक प्राण और हों शर दो'


सुनकर संवाद ये कर्ण और दुर्योधन का,
भर आया अंतस आज सभी पुरजन का।
जयकार लगाने लगे सभी फिर कर्ण का,
जयगान गाने लगे सब दुर्योधन का। 


उधर राजकुल में उठती थी एक चिंगारी,
मानो पांडवों के हिय पर चली कटारी।
पर छुपे थे सभी सुनकर जयनाद कर्ण का,
दिखता था मुख मुरझाया पांडव जन का। 


कुंती पर तो जैसे विपदा एक आई,
जब उसने झांकी अपने सुत की पाई। 
बंध कर बैठी थी पृथा मसोसती मन को,
कह सकी नहीं वो लाल अपने कर्ण को। 


हो लोट रहा छाती पर भुजंग कोई जैसे,
थी तड़प रही विकला कुंती भी तैसे। 
जैसे अम्बर से झरते सर पर अंगारे, 
तैसे ही बहने लगे पृथा के नयन अश्रु के धारे। 


चुप थी समाज से कुछ ना कह सकती थी,
किन्तु ये पीड़ा कब तक सह सकती थी। 
इस रंगशाला ने अजब ही रंग जमाया,
बिछड़ों को आज अपनों से है मिलाया। 


लेकिन दिखता है बीज गरल का इसमें,
जिससे पनपेगा कोई सर्प अब जग में। 
क्या सर्प वो इस जग को अब डंस जाएगा?
या की कोई गरल उसे भी खायेगा ?


-रजत द्विवेदी 


  




























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हिंद महासागर में उठता,कोई भीषण ज्वार हूँ मैं शंकर के डमरू में उठता महाप्रलय हुंकार हूँ मैं गंगा की निर्मल लहरों में जैसे मौज अपार हूँ मैं   नारायण का स्वयं मैं जैसे कोई रूप विस्तार हूँ मैं   दिनकर की रेशम किरणों का नभ में फैला हार हूँ मैं चाँद का चकोर हूँ,अगनित तारों का यार हूँ मैं   तुलसी का रघुबीर,मीरा का निश्छल प्यार हूँ मैं शंकर की कोई प्रतिमा या निर्गुण शिव जग का आधार हूँ मैं रणधीर समर में अडिग खड़ा वीरता की भरमार हूँ मैं रग रग में करता जैसा पौरुष का संचार हूँ मैं नरसी भगत सा प्रेमी हूँ,भक्ति का अनुपम सार हूँ मैं  सभी संवेदनों से भरा, खुद में ही संसार हूँ मैं -रजत द्विवेदी