हिंद महासागर में उठता,कोई भीषण ज्वार हूँ मैं
शंकर के डमरू में उठता महाप्रलय हुंकार हूँ मैं
गंगा की निर्मल लहरों में जैसे मौज अपार हूँ मैं
नारायण का स्वयं मैं जैसे कोई रूप विस्तार हूँ मैं
चाँद का चकोर हूँ,अगनित तारों का यार हूँ मैं
तुलसी का रघुबीर,मीरा का निश्छल प्यार हूँ मैं
शंकर की कोई प्रतिमा या निर्गुण शिव जग का आधार हूँ मैं
रणधीर समर में अडिग खड़ा वीरता की भरमार हूँ मैं
रग रग में करता जैसा पौरुष का संचार हूँ मैं
नरसी भगत सा प्रेमी हूँ,भक्ति का अनुपम सार हूँ मैं
सभी संवेदनों से भरा, खुद में ही संसार हूँ मैं
-रजत द्विवेदी
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