शोणित की अश्रु धारा को, बता कैसे मैं रोक सकूँ ?
समय हूँ मैं फिर भी रोता हूँ कभी कभी ये सोचकर,
कि क्या दरकार समर की थी, जो उजाड़ चुके लाखों के घर?
क्यों था असहाय खुद मैं जग में, जब हुआ महाभारत का रण ?
क्यों न थम गया मैं इक पल को, जब कुरुक्षेत्र था रचा गया ?
क्यों ना ठहरा एक क्षण को भी, जब जलता रहा लाख का घर ?
क्यों न मेरा रथचक्र रुका, जब लाज लुटी पांचाली की ?
क्यों न साथ था राधेय के, जब रंगभूमि थी सजी हुई ?
रंगभूमि - हाँ, सत्य वह रंगभूमि ही थी,
जड़ बनी जो सारे झगडे की।
क्यों ना कर्ण को न्याय मिला,
नियति को क्या मंज़ूर हुआ,
नियति को क्या मंज़ूर हुआ,
जो रचदी खेल लहू की धाराओं की ?
वो एक रंगभूमि ना थी, जहाँ किसी का हो मान घटा।
इन्द्रप्रस्त का वह रंगमहल, पांचाली जब हसि सुयोधन पर ,
वह भी एक रंगभूमि थी, पटकथा समर की जहाँ लिखी।
वह द्युत क्रीड़ा भी एक नाटक ही था,
जिसने सजाई प्रतिशोध की रंगभूमि, वह कुरुक्षेत्र की रणभूमि।
धिक् है ऐसे समाज को, जो रक्षा न करे एक नारी की।
दुर्गा,चंडी के रूपों को जो अबला समझने की गलती करते,
सच है होते वे ध्वंश समर में, गीदड़ की मौत सदा मरते।
सच है होते वे ध्वंश समर में, गीदड़ की मौत सदा मरते।
रंगभूमि तो वह भी थी, जहाँ सुयोधन बौराया था,
शांतिदूत कृष्ण को बांधने मूर्ख ज़ंजीर लाया था।
थी रंगभूमि तो सदा कर्ण के लिए,
सच जानकार भी था वह चुप रहा।
सहता समाज के घातों को, फिर भी दुर्योधन साथ रहा।
कुरुक्षेत्र थी रंगभूमि, कैसे कैसे थे खेल रचे।
समर जीतने को सबको, अधर्म के पथ भी खूब जचे।
बना ढाल शिखंडी को, पार्थ भीष्म पर वार करे।
खड़ा जयद्रथ रक्षा में सौभद्र को सबसे दूर करे।
करते सात सात निष्ठुर एक बार में वार सभी,
अभिमन्यु को था घेर लिया, कायर बन लड़ते वीर सभी।
था जयद्रथ भी मरा छल से,थी जान गयी घटोत्कच की भी,
रण से अलग था द्रोण भी, छल से ही मारा सुयोधन भी।
थी रंगभूमि वह भी जिसमें थे राधेय के प्राण गए,
अंधेरे में अस्वस्थ्मा, पांडव पुत्रों के प्राण हरे।
ये कुरुक्षेत्र की रणभूमि है बनी धर्म की रंगभूमि,
सबके धरम है परखे जाते, करम किसी का छिपा नहीं।
पर अब इतिहास को याद करूँ, तो भी क्या मैं कर सकता हूँ ,
निर्दोषों के जो शव जलते हैं , उनको मैं रोक न सकता हूँ।
सच है शायद कहना ये की घुन भी आटें संग पिसता है,
जब आगे लगी हो रण में भीषण, निर्दोश भी बलि पर चढ़ता है।
-रजत द्विवेदी
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