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Showing posts from November, 2017

मेरी पहचान

हिंद महासागर में उठता,कोई भीषण ज्वार हूँ मैं शंकर के डमरू में उठता महाप्रलय हुंकार हूँ मैं गंगा की निर्मल लहरों में जैसे मौज अपार हूँ मैं   नारायण का स्वयं मैं जैसे कोई रूप विस्तार हूँ मैं   दिनकर की रेशम किरणों का नभ में फैला हार हूँ मैं चाँद का चकोर हूँ,अगनित तारों का यार हूँ मैं   तुलसी का रघुबीर,मीरा का निश्छल प्यार हूँ मैं शंकर की कोई प्रतिमा या निर्गुण शिव जग का आधार हूँ मैं रणधीर समर में अडिग खड़ा वीरता की भरमार हूँ मैं रग रग में करता जैसा पौरुष का संचार हूँ मैं नरसी भगत सा प्रेमी हूँ,भक्ति का अनुपम सार हूँ मैं  सभी संवेदनों से भरा, खुद में ही संसार हूँ मैं -रजत द्विवेदी

रंगभूमि

शोणित की अश्रु धारा को, बता कैसे मैं रोक सकूँ ? समय हूँ मैं फिर भी रोता हूँ  कभी कभी ये सोचकर, कि क्या दरकार समर की थी, जो उजाड़ चुके लाखों के घर? क्यों था असहाय खुद मैं जग में, जब हुआ महाभारत का रण ? क्यों न थम गया मैं इक पल को, जब कुरुक्षेत्र था रचा गया ? क्यों ना ठहरा एक क्षण को भी, जब जलता रहा लाख का घर ?  क्यों न मेरा रथचक्र रुका, जब लाज लुटी पांचाली की ? क्यों न साथ था राधेय के, जब रंगभूमि थी सजी हुई ? रंगभूमि - हाँ, सत्य  वह रंगभूमि ही थी, जड़ बनी जो सारे झगडे की। क्यों ना कर्ण को न्याय मिला, नियति को क्या मंज़ूर हुआ, जो रचदी खेल लहू की धाराओं की ? वो एक रंगभूमि ना थी, जहाँ किसी का हो मान घटा। इन्द्रप्रस्त का वह रंगमहल, पांचाली जब हसि सुयोधन पर , वह भी एक रंगभूमि थी, पटकथा समर की जहाँ लिखी। वह द्युत क्रीड़ा भी एक नाटक ही था, जिसने सजाई प्रतिशोध की रंगभूमि, वह कुरुक्षेत्र की रणभूमि। रंगभूमि तो वह कुरुसभा भी थी, जहाँ लाज गई एक नारी की, धिक् है ऐसे समाज को, जो रक्षा न करे एक नारी की। दुर्गा,चंडी के रूपों को  जो अबला समझने की गलती