भुजबल पर मान करते थे सब। बुद्धि का दम ना भरते थे जब। बंटते थे प्रांत और राज्यों में। सम विषम जटिल समाजों में। अविरल संघर्ष की नदिया थी। नाव पर स्वार्थ की बगिया थी। दिस विविध चली पतवारें थीं। पहुंची ना कूल किनारे थीं। जब देशप्रेम था टूट चुका। जब राजभोज था धर्म बना। भ्रष्टाचार पग पसारे था। राजा के पांव पख़ारे था। तब जली ज्योति एक क्रांति की। स्वदेश सुख और शांति की। मगध की धरती पर जन्मी। वह दिव्य आत्मा भारत की। चणक का सुत वह विष्णुगुप्त। बन गया भारत की पहचान। यवनों को जिसने ललकारा। कर दिया सुरक्षित सीमांत। पथिकों के लक्ष्य आश्वस्त किए। भटकों के मार्ग प्रशस्त किए। ब्राह्मणों को नव पहचान दिया। श्रमिकों को भी अभिमान दिया। राजाओं को था एकत्र किया। जन जन को था निर्भीक किया। मगध को भयमुक्त कराया था। चन्द्रगुप्त को सम्राट बनाया था। था सहज द्विज वह, पर कुटिल महान। थी ज्योति अलख उसकी मुस्कान। विचारों से खड्ग को काटा। उसने जग को साहस बांटा। है रोम रोम ऋणी उसका आज। जिसने एक किए सब राज। वह चाणक्य ब्राह्मणों का मान बना। रा
कलम की स्याही से हर पल नया अंगार लिखता हूँ