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Showing posts from 2020

विष्णुगुप्त

भुजबल पर मान करते थे सब। बुद्धि का दम ना भरते थे जब। बंटते थे प्रांत और राज्यों में। सम विषम जटिल समाजों में। अविरल संघर्ष की नदिया थी। नाव पर स्वार्थ की बगिया थी। दिस विविध चली पतवारें थीं। पहुंची ना कूल किनारे थीं। जब देशप्रेम था टूट चुका। जब राजभोज था धर्म बना। भ्रष्टाचार पग पसारे था। राजा के पांव पख़ारे था। तब जली ज्योति एक क्रांति की। स्वदेश सुख और शांति की। मगध की धरती पर जन्मी। वह दिव्य आत्मा भारत की। चणक का सुत वह विष्णुगुप्त। बन गया भारत की पहचान। यवनों को जिसने ललकारा। कर दिया सुरक्षित सीमांत। पथिकों के लक्ष्य आश्वस्त किए। भटकों के मार्ग प्रशस्त किए। ब्राह्मणों को नव पहचान दिया। श्रमिकों को भी अभिमान दिया। राजाओं को था एकत्र किया। जन जन को था निर्भीक किया। मगध को भयमुक्त कराया था। चन्द्रगुप्त को सम्राट बनाया था। था सहज द्विज वह, पर कुटिल महान। थी ज्योति अलख उसकी मुस्कान। विचारों से खड्ग को काटा। उसने जग को साहस बांटा। है रोम रोम ऋणी उसका आज। जिसने एक किए सब राज। वह चाणक्य ब्राह्मणों का मान बना। रा

सुभाष की याद में.....

उन्नत दक्खिन एशिया की धरती है, जिसने सुभाष पाया तुमको। गदगद है स्वयं मां भारती भी, जिसने था गोद में खेलाया तुमको। थी अनुरागी वह माता तुम्हारी जिसने था सुभाष जाया तुमको। और बड़भागी हूं मैं जिसने आदर्श अपना पाया तुमको। हे वीर लाडले भारत के, भारत का जब तक नाम रहे, भारत के लोगों के मन में तब तक तेरा सम्मान रहे। दुनिया के चारों कोनों में गूंजे तेरा उज्ज्वल इतिहास। था कोई नरसिंह ऐसा भी जिसने जीता सबका विश्वास। खिल उठे सभी का रोम रोम, आंखें चमके ज्यों प्रखर सोम। जब नाम लिया जाए "सुभाष", पाषाण हृदय बन जाए मोम। मन में सबके उन्माद उठे, एक स्नेह भरा संवाद उठे। आज़ाद हिन्द पुकारूं तो एकता का भयंकर नाद उठे। मां भारती के बंधन काटे। जग में मां को सम्मान दिया। मां अब भी रोती है छुप कर जो जग ने तुम्हारा अपमान किया। था जीवन मरण रहस्य ही तो कब जान सका तुमको था कौन। तुम इंकलाब चिल्लाते थे जब जब रहता था विश्व मौन। सारे धर्मों को एक किया और महिलाओं को भी बल दिया। आज़ाद हिन्द की सेना में हर एक बाशिंदा गर्व से जिया। पर हाल अभी बुरा देखो, हर युवा है भटक

आलोक...

अरुण आलोक की जयकार बोलो। जगत की ज्योतियों के द्वार खोलो। जगा है नींद से ये भोर जब से, सुनाई दे रहा है शोर तब से। कोलाहल है ये एक नई ज़िंदगी का। पशु पक्षी, विपिन का और पवन का। वही आलोक है, वो ही गगन है। वो ही स्वच्छंद सा उन्मुक्त मन है। वो ही उन्माद मन में अा रहा। वो ही एक भाव हिय पिघला रहा है। जो एक उम्मीद जग को बांधती है। निशा के अंत को शुभ मानती है। कि देखो फूल सब मुस्का रहे हैं। भंवर को प्रेम से पुचकारते हैं। गगन पंखों को उड़ते देखता है। रवि की ज्योति से दृग सेंकता है। धरा खिल जाती है रश्मि को पाकर। नया जीवन मिला ज्यों जाग कर। - रजत द्विवेदी https://www.yourquote.in/rajat-dwivedi-hmpx/quotes/arunn-aalok-kii-jykaar-bolo-jgt-kii-jyotiyon-ke-dvaar-kholo-1pk2v