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Showing posts from February, 2019

आज़ाद

सिंघों की गर्जन के आगे, कब कौन भला कुछ कर सकता है? एक वीर सूरमा मौत से भी कब कहो कैसे डर सकता है? जो था "आज़ाद", "आज़ाद" ही है, वह किससे कहो बंध सकता है? जो जिया ज़िंदगी शेरों सा, वह कैसे दुबक कर रह सकता है। घिर गया स्वानों से लेकिन एक रोज़ वो वीर व्याघ्र फंस जाता है। किस और धरे आगे पग वो यह कुछ भी समझ न आता है। एक द्रोही अपने खेमे में से एक छल खेल कर जाता है। "आज़ाद" वीर का गोरों के हांथों दाव लगाता है। पर वाह! रे बीर बांकुरे तू, क्या अमर बलिदान तूने दिया। मां भारती के हित अर्पित निज जीवन का दान तूने दिया। है धन्य धरा, धन्य है जन जन, तूने भारत में जन्म लिया। इंकलाब की अग्नि को अपने लहू से पवित्र किया। -रजत द्विवेदी

निराला

अंबर का रुदन सुना मैंने, सागर का क्रंदन देखा है, उठती ज्वाला की लपटों में इस तन को जलते देखा है। मैं जा पहुंचा जब भीतर तम में, सूरज को ढलते देखा है, लेकर सहारा जुगनुओं का, चंदा को पलते देखा है। सहस्त्रों बार अग्नियों में एक शीत लहर को देखा है, असंख्य हृदय देखे जिनको हिम सा पिघलते देखा है। फिर कभी प्रेम में पड़े मन को बर्फ़ में गलते देखा है, और कभी क्रान्ति की ज्योति को, तम से निकलते देखा है। कभी साथ साथ चले हैं कदम, उन्हें एक सा ढलते देखा है, और कभी बाघियों से मन को अकेला चलते देखा है। संतों को क्षरा पूत बनते, तलवार उठाते देखा है, क्षत्रिय को खड़ग छोड़ करके साधू भी बनते देखा है। मैं आया तभी कलम लेकर, है लिखा जो भी कुछ देखा है, कुछ लिखे फसाने हैं कोरे, कुछ चिरंतन सत्य का लेखा है। मैं 'दिनकर' हूं, 'निराला' हूं, 'जय शंकर' का उजियाला हूं, मैंने तो बस वही लिख डाला है, जो कुछ जीवन में देखा है। -रजत द्विवेदी