सिंघों की गर्जन के आगे, कब कौन भला कुछ कर सकता है? एक वीर सूरमा मौत से भी कब कहो कैसे डर सकता है? जो था "आज़ाद", "आज़ाद" ही है, वह किससे कहो बंध सकता है? जो जिया ज़िंदगी शेरों सा, वह कैसे दुबक कर रह सकता है। घिर गया स्वानों से लेकिन एक रोज़ वो वीर व्याघ्र फंस जाता है। किस और धरे आगे पग वो यह कुछ भी समझ न आता है। एक द्रोही अपने खेमे में से एक छल खेल कर जाता है। "आज़ाद" वीर का गोरों के हांथों दाव लगाता है। पर वाह! रे बीर बांकुरे तू, क्या अमर बलिदान तूने दिया। मां भारती के हित अर्पित निज जीवन का दान तूने दिया। है धन्य धरा, धन्य है जन जन, तूने भारत में जन्म लिया। इंकलाब की अग्नि को अपने लहू से पवित्र किया। -रजत द्विवेदी
कलम की स्याही से हर पल नया अंगार लिखता हूँ