Skip to main content

Posts

Showing posts from January, 2017

वीरगति

मैं समय हूँ रुक सा गया  आज ज़मी ठहरी सी है  ये कुरुक्षेत्र की रणभूमि  क्यों आज रक्क्त सनी सी है ? ये इक सन्नाटा छाया है ।  पता नही चलता कुछ है, ये शाम भला क्यों मौन हुई ? क्यों दिनकर भी है रोता यहाँ ? लगता है कोई महावीर  है वीरगति को प्राप्त हुआ।  देखो तो इस खेमे को जो आज मधुर सुख पाते हैं ।  कौरव पापी सारे ये,किसी विजय गीत को  गाते हैं। कृपा,द्रोण,दुर्योधन सब एक समान ही दीखे हैं ।  अधर्मी टोला इन सबका, कोई कपट तो खेले है। जयद्रत की ये हँसी मुझे बहुत विचलित कर रही है अब।  मैं स्वयं 'काल होकर भी, पूंछता हूँ की हुआ क्या कब? असल बात मैं जानू हूँ पर कैसे कह दूँ तुम सब से ? जो हुआ आज है अधर्म यहाँ,उसे बताऊँ मैं कैसे ? कैसे कहूँ की मासूम जान इक आज यहाँ है छीनी गई ।  कैसे इक वीर के रक्क्त से ये कुरुभूमि  है भींज गई। क्षमा करो हे अभिमन्यु ये काल स्वयं शर्मिंदा है।  तुझे छल से मारने वाले ये क्रूर कौरव ज़िंदा हैं ।  त्रिकाल समय मैं स्वयं आज हूँ स्तब्द रहा तुझे देख। सात सात ने वार किया, जब था तू निर्बल,अकेला एक। हाय! कैसा ये भर चढ़ा