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Showing posts from 2018

हिम टूट पड़ा भू मंडल पर.....

हिम टूट पड़ा भू मंडल पर... एक शीत लहर निराशा की, अंधियाली रातों में चल दी।  हैं क्षीण सर्दियों से ठिठुरती चारु की चंचल किरणें भी। पृथ्वी पर छाया एक कहर, हिम टूट पड़ा भू मंडल पर। तम और ज़रा गहराता है, कुछ भी अब नज़र न आता है। चन्द्रमा छिपा ही जाता है, हिम से खुद को बचाता है। आया है ये एक कठिन पहर, हिम टूट पड़ा भू मंडल पर। सड़कों पर बेबस रोते हैं, हर रोज़ ज़िंदगी खोते हैं। जो चूर महलों की रौनक में, ज़िंदगी से बेखबर होते हैं। इक धुंध में गुम है सारा शहर, हिम टूट पड़ा भू मंडल पर। वन जीवन सारा रुक सा गया, वृक्षों का कद झुक सा गया। पशुओं पर छाया आलस है,  निद्रा में जंगल डूब गया। सूखी डाली, सूखा शजर, हिम टूट पड़ा भू मंडल पर। जग जीवन अब थर्राता है, मन व्याकुल सा हो जाता है। है ठिठुर चुका सारा तन मन, कुछ गरमाहट ना पता है। मृत सा ठंडा पड़ा है शर, हिम टूट पड़ा भू मंडल पर। हिम का अब तेज हरूं कैसे? अग्नि जग में भरूं कैसे? किस तरह ज़िंदगी जाग उठे? तम को सूरज मैं करूं कैसे? जागे कैसे कोई आग प्रखर? हिम टूट पड़ा भू मं

ज्योतिकलम

मैं ज्योतिपुंज,सारे जग का उजियारा, मुझसे ही तो हर बार तिमिर है हारा। मेरे मुख में ही तो प्रकाश पलता है, मेरी विभाओं से ही सूरज जलता है। नभ में फैली जो अनंत तक कनक छटा है, मेरे दिनकर की ही ये पुण्य प्रभा है। धरती पर नित जो जीव जंतु चलते हैं मेरे प्रकाश ही भरकर पलते हैं। मैं कवि निमित्त जो रहता सदा प्रगति में, उजियारा भरता जीवन के घोर तिमिर में। कब काल के रोका कहो कभी मैं रुका हूं? या नतमस्तक हो तम के आगे मैं झुका हूं। मेरी कलम में विपलभ की है चिंगारी, हर बार खड़ग पर पड़ी कलम ही भारी। क्रान्ति का हूं मैं बीज, छिपा धरती में, हल हांको तो हलचल होती धरती में। फिर एक रूप ले वीरभद्र आता हूं, सारी सृष्टि का समग्र नाश करता हूं। फिर सृजन बीज बनकर जग में पलता हूं, जग को जीवन का दान अमर करता हूं। -रजत द्विवेदी 

नवप्रकाश

धुंधली है रात,घनघोर घटा। अंधियारे की फैली है छटा। अंबर पर तारे अब गुम से हैं। चारू की किरणें कमज़ोर हुई। ये एक अंधेरा कैसा है। जिस पर चंदा का ज़ोर नहीं? तम में भी गूंजित एक प्रतिध्वनि है। लेकिन ज्योति में शोर नहीं? क्यों नभमंडल ये सूना सा है? कोई कीर्ति पताखा प्रज्वलित नहीं। सब सोए हुए सितारे हैं। इस आसमान में चमक नहीं? पूछो कोई जुगनू,तारों से। तम के छोटे उजियारों से। नभ के जलते अंगारों से। अंबर के उदित सितारों से। क्यों छिप गए तम में डरकर? क्यों खोई अपनी आग प्रखर? तम से क्यों हार अब मान लिया? क्यों ना मर जाते लड़ लड़कर? ये जग में जो अंधियारा है। पल भर का ही खेल ये सारा है। कल फिर से सूर्य उदित होगा। फिर चहु ओर उजियारा है। तो आओ सब जुगनू तारों संग, अब खुशियां सभी मनाते हैं। अंगारों को नस नस में भरकर, अब तम से रार मचाते हैं। लेकर मशालें हांथों में, जग को रौशन कर जाते हैं। अंधियारे में आओ सब मिलकर, आशा का दीप जलाते हैं। -रजत द्विवेदी 

इंकलाब और इश्क़

मकबूल आज फिर इश्क़ का फसाना होगा, फना फिर से इंकलाब का दीवाना होगा। एक बाघी आज फिर से काफ़िर हुआ है, थोड़ा परेशान तो बेशक ये ज़माना होगा। आज फ़िर रिवाजों को किसी ने चुनौती दी है, अब इतना तो शोर शहर में ज़रूर उठेगा। कल तक जो बंधा था तम की ज़ंजीरों में, अब उसकी आज़ादी पर चर्चा मनमाना होगा। आज छलक उठेगा मैकदे में जाम इश्क़ का, शराब का नशा अब बेईमाना होगा। ये इश्क अपने मुल्क से है या किसी शख़्स से न जाने, पर इस इश्क़ का कायल सारा मैखाना होगा। इंकलाब और इश्क़ अब जो दोनों साथ हुए, तो ज़ाहिर है इस बाघी का दुश्मन ज़माना होगा। कुछ दीवारें ढहेंगी, थोड़ी सियासत भी ना खुश होगी, सारे शहर में उठते फुगान का कोई पैमाना ना होगा। - रजत द्विवेदी

हांथ लगी बस रेत मुसाफ़िर..

सफ़र पर निकला एक मुसाफ़िर , हांथ लगी बस रेत मुसाफ़िर... आलम से ही है घूम रहा , अपनी ही कज़ा को ढूंढ रहा , जो कुछ भी रहा इनके दर्मियां , वो एक अंजान सफ़र ही था। इस जग में भटकता रहा मुसाफ़िर , हांथ लगी बस रेत मुसाफ़िर.. रिश्ते जोड़े , नाते जोड़े , कभी दिल टूटा , कभी दिल तोड़े , कुछ मीत बने , कुछ यार हुए , कुछ से फिर कई तकरार हुए। मिलता बिछड़ता रहा मुसाफ़िर , हांथ लगी बस रेत मुसाफ़िर... घर छोड़ा , घरवाले छोड़े , शोहरत के लिए नाते तोड़े , यूं भटक भटक कर शहरों में , जीने की किश्तें जुटा रहा। किश्तों में जीता रहा मुसाफ़िर , हांथ लगी बस रेत मुसाफ़िर... फिर कभी मिला कोई ऐसा , जो रहा ज़िंदगी के जैसा , पर उसका भी साथ छूट गया , एक और आशियां टूट गया। हर पल यूं टूटता रहा मुसाफ़िर , हांथ लगी बस रेत मुसाफ़िर... लो छोड़ जगत बैराग लिया , जग मोह जाल से भाग लिया , फिर भटकता रहा सेहरा में , सब से नाता फिर तोड़ दिया। लेकिन बैरागी बनकर भी , थी हांथ लगी बस रेत मुसाफ़िर... आई फ़िर मौत जब उससे मिलने , कुछ नहीं हांथ फिर उसके था , था छूटा अब सब कुछ उससे ,

रंगशाला

है मचा हुआ फिर आज नगर कोलाहल, हर डगर डगर से निकल आए हैं जन जन है कौन ये कि जो निकल भीड़ से आया? जिसने है सारे नगर में रंग जमाया। मुख पर सूरज का तेज,भुजा में बल है। जिसके शर में बहती एक आग प्रबल है। है कर में धन्वा लिए खड़ा यों रण में, ज्यों वीरभद्र का रूप धरा शंकर ने। मस्तक पर चमक रही है कनक प्रभा सी, जो दर्प दिखाती सूर वीर प्रतिभा की। कानों में चमक रहे हैं कुंडल स्वर्ण के, आती सुगंध फूलों की जिसके तन से। मानो खिलता हो पुष्प कोई उपवन में, या कि कोई खार निकल आया हो वन से। मुख पर कोमलता, शर में बल पलता है, इस शूरवीर का परिचय नहीं मिलता है। जैसे दावानाल कोई सुलग आई जंगल में, सूखे पत्तों के प्रबल अग्निगंधक से। या कि कोई लावा फूट निकल हो आया, जिसमें पौरुष का अनुपम दृश्य समाया। ऐसा ही था वो वीर लाल कुंती का, पांडवों का ज्येष्ठ वो कर्ण नाम था जिसका। था रहा छद्म ही उसका जीवन सदा को, कोई देख न पाया उदित सूर्य प्रभा को। आया जब वो सूर्य चीर कर तम को, सब रहे दंग देखकर उसको एक पल को। कुरूराज कुटुंब के, नगर के सब नर नारी, आ पड

विजेता

गर्त में डूबते सितारे कौन पूछे ? अम्बर से टूटते तारे कौन पूछे ? उदित उस सूर्य का सब लोहा माने , यहां ज़िन्दगी से हारे को कौन पूछे ? भले इस संसार तक ही जय की चमक है , भले उस पार कीर्तियाें की ना कुछ दमक है। मगर सब तो यहां एक होड़ में हैं , एक एक सीढ़ी विजय की जोड़ते हैं। यहां जो जीतता वो नभ का सितारा , यहां जो क्षीण है वो जग से हारा। कि है पहचान तेरी उस अनल से , बहा करती सदा जो तेरे बाहुबल में। नहीं कुछ और परिचय है मनुज का , विजय ही माप है यहां तेरे पौरुष का। जो तू जीता समर तो मिलती ख्याति , सहज यूं ही कभी ना कीर्ति आती। है मिलती जग में करुणा वीर को ही , सहानुभूति हारे को ना कभी भी। हैं करते मित्रता सब तब ही तूझसे , जो दिखती वीरता की दर्प तुझमें। भले ही जीत हार सब मिथ्य ही है , मगर इस संसार का ये सत्य ही है। बली को सदा मिलता कमल है , पराजित तो सदा ही कीच में है। है अब तो तुझको ही निश्चय है करना , कि तुझको चाहिए कंकड़ या सोना। विजय से झूम कर जग में जीना , कि या की हारकर है विष को पीना। -रजत द्विवेदी 

पौरुष

स्वास स्वास में नई आंधियां नया जन्म जब पाती हैं और रगों में अमित अनल की धाराएं चल जाती हैं, कतरा कतरा लहू ज्वार की लहरों से भर जाता है, तभी मनुज के पौरुष का बल अभय अजय हो जाता है। कितने सिंहों का बल देखो फिर उस नर में आ जाता है, छोड़ आलस्य और भोग विलास जो रण में खड़ग उठाता है, कितने गजराजों की चिंघाडें भी फिकी पड़ जाती है, उस नर के कंठ कमल से जब जयनाद फूट कर आती है। बंजर भूमि पर भी एक नया सृजन का अंकुर फूट जाता है, नर जब अपने कर्म के बल से धरती पर हल चलाता है। और उसके मन में पलते सब दुख,संशय मिट जाते हैं, चहुं ओर सब लोग उस नर का विजय गीत ही सुनाते हैं। राख से उठकर ख़ाक बनने तक जो निज कर्मों में लीन रहा, जग की सारी पीड़ाओं को जिसने वीरता से सहा, वो मनुज मरण के बाद भी जग में सदा सदा को अमर हुआ, औरों के पथ दर्शन हेतु उसका जीवन फिर धर्म बना। -रजत द्विवेदी 

जगतपति

मैं कोटि कोटि, ये अनंत विस्तार है मेरा, हिम से जलधी तक समग्र संसार है मेरा। है रूप मेरा जिसमें जग दर्प दिखता है, मेरे नेत्रों में ही प्रकाश जगता है। मेरे अधरों पर ही खिलती हैं लताएं, सजती माथे पर ज्योतित दीपशिखायें। सांसों में उठता ज्वार न बंध सकता है, आंखों में पलता अंगार न बुझ सकता है। मैं रोक सकूं पृथ्वी की चाल, गति को, दूं दान ज्ञान का जड़ मूड़ मति को। मैंने ही जग को गीता ज्ञान दिया है, अर्जुन को उसकी पहचान दिया है। मैं स्वयं वेद हूं, मानस भी स्वयं मुझी में, गीता, पुराण का तत्व बसा है मुझमें। लेता हूं जब जब जन्म नया मैं जग में, सुर हर्षित सभी होते अनंत उस नभ में। शंकर का मुझ में ही प्रतिबिंब दिखता है, मेरे संकेत से ही संहार जगता है। और मेरी इच्छा से ही सृष्टि चलती है, सारे जग में जीवन कलियां खिलती हैं। ले धार मुझे तू अब अपने इस मन में, होगा न भय, न संशय फिर कुछ जीवन में। तू मेरा है एक अंग, हूं शर मैं तेरा, जन्मों का नाता है तेरा और मेरा। बस रूप नए नए लेकर हम आते हैं, पर प्रेम एक दूजे के हिय ही पाते हैं। सारे जग क