हिम टूट पड़ा भू मंडल पर...
एक शीत लहर निराशा की,
अंधियाली रातों में चल दी।
हैं क्षीण सर्दियों से ठिठुरती
चारु की चंचल किरणें भी।
पृथ्वी पर छाया एक कहर,
हिम टूट पड़ा भू मंडल पर।
तम और ज़रा गहराता है,
कुछ भी अब नज़र न आता है।
चन्द्रमा छिपा ही जाता है,
हिम से खुद को बचाता है।
आया है ये एक कठिन पहर,
हिम टूट पड़ा भू मंडल पर।
सड़कों पर बेबस रोते हैं,
हर रोज़ ज़िंदगी खोते हैं।
जो चूर महलों की रौनक में,
ज़िंदगी से बेखबर होते हैं।
इक धुंध में गुम है सारा शहर,
हिम टूट पड़ा भू मंडल पर।
वन जीवन सारा रुक सा गया,
वृक्षों का कद झुक सा गया।
पशुओं पर छाया आलस है,
निद्रा में जंगल डूब गया।
सूखी डाली, सूखा शजर,
हिम टूट पड़ा भू मंडल पर।
जग जीवन अब थर्राता है,
मन व्याकुल सा हो जाता है।
है ठिठुर चुका सारा तन मन,
कुछ गरमाहट ना पता है।
मृत सा ठंडा पड़ा है शर,
हिम टूट पड़ा भू मंडल पर।
हिम का अब तेज हरूं कैसे?
अग्नि जग में भरूं कैसे?
किस तरह ज़िंदगी जाग उठे?
तम को सूरज मैं करूं कैसे?
जागे कैसे कोई आग प्रखर?
हिम टूट पड़ा भू मंडल पर।
- रजत द्विवेदी
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