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Showing posts from January, 2018

नेताजी

कुछ गुमनाम हुए , कुछ फ़ना हुए वतन की आबरू बचाने , | ना जाने कितनी जवानी आबाद हो गई हैं गुमनाम है आज मुल्क का नेता , पहचान तक गुम है वक्त की रेत में और तुम कहते हो चरखे ने आज़ादी दिलाई है | घर छोड़ा , मुल्क छोड़ा , पहचान बदल ली बस मुल्क की खातिर पर लोग कहते हैं खादी ने जीत दिलाई है | अरे कभी तो मान लो साहब इस शेर - ए - हिन्द ने ही आज़ादी दिलाई है | -रजत द्विवेदी

नाँव

देखें ज़रा क्या ज़ोर है इन बेरहम तूफानों में नाँव हमारी भी बनी है हौसले की चट्टानों से | गर लहर ना साथ है तो भी ग़म की बात क्या मिलते नहीं मोती सहज ही गहरे सागर में | ज्वार से पतवार मेरी यूँ ही लड़ती जायेगी चीर कर गहराईयाँ , ये नाँव चलती जायेगी | हो नियति का लेख यदि अब हार भी निश्चित ही है तो भी लहरों पर निशानी एक छोड़ जायेगी | -रजत द्विवेदी

राधेय

किसी विपिन में खिला कुसुम ज्यों घिर कर तीखे काँटों से    जन्मी एक ज्योति पौरुष की, थी भरी हुई संतापों से। हुआ जन्म जब वीर कर्ण का गंगा नदी किनारे राजकुमारी पृथा चली ले शिशु को घाट संकारे। लोक लाज में फंसी कुंवारी माता तड़पती जाती है ममता और प्रतिष्ठा बीच पृथा सोचती जाती है। किसे चुने वो लाज या कि पुत्र,किसका रक्खे मान यहाँ? पुत्र चुने तो मान घटेगा,मान चुना तो पुत्र गया। आखिर चुनकर मान प्रतिष्ठा त्याग दिया बालक को बहा दिया पुत्र गंगा में, लौट चली फिर घर को। बहता हुआ वो बालक नद में दिखा चमकता जल में कवच और कुण्डल धारी वो दमक रहा अम्बरतल में। अधिरथ घर के निकट पहुँच जब चमकी ये पुण्य ज्योति राधा निकल घर से आई,भरली अपनी सुनी झोली। राधा का पुत्र अब ये कर्ण  राधेय कहलाया विस्मय है नियति का लेखा, क्षत्रिय सूत घर आया। बीत गए कई वर्ष काल का चक्र हो रहा भारी युवा हुआ राधेय शर में सुलगने लगी चिंगारी। आ पहुंचा बीच रंगभूमि लगा ललकारने पार्थ को द्वन्द युद्ध को पुकार रहा आँख दिखाता पार्थ को। रंगभूमि में सज रही महाभारत की पृष्ठभूमि जाति नाम पर कर्ण का खण्डन करते फिर पांडव

शोर

दूर कहीं फिर शोर उठा  नाद एक घनघोर उठा  पुकारता था कोई मदद का हाँथ बढ़ाने को  सियासी पाखण्ड का फिर एक दौर चला  लगा बैठे थे जो इंसाफ़ की आस  सियासत के खेल में फिर से उनका ही घर लुटा  साहब तो खुश थे दंगों में पैसे लगवा करके  धोखा तो मिला गरीब को, आग में उसका घर फुंका  नेता तो कर गये अच्छे मकान, खाने का वायेदा  मगर सियासी दाव पेज में गरीब का घर फिर टूटा  ना राशन, मिला ना कपड़े मिले,ना रहने का ठिकाना  बस आग मिली मज़हब की, और मिला झगड़े का ताना बाना  दूर वहाँ जो शोर उठा  वो आह निकली थी गरीब की  जिसका घर उजड़ा देंगे में  और बस राख मिली शरीर की| -रजत द्विवेदी

बिस्मिल की याद....

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है| देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में है| वक्त आने दे बता देंगे तुझे ए आसमाँ, हम अभी से क्या बताएँ कया हमारे दिल में है| मिट नहीं सकते फसाने जिंदगी के यार के , कट नहीं सकते हमारे सर किसी तलवार से, कल भी थी और आज भी जलती शमा वो दिल में है| सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है| हैं गरज कर बोलते हम सिंह की दहाड़ से, हमगिरी तक डोलते अब तीव्र इस हुंकार से, मौत से भी क्यों डरें, क्या शक्ति उस बुज़दिल में है| सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है| आज फिर से उठ रहा दिल में नया एक ज्वार सा, आ गया क्षण है सृजन का या जगत संहार का, काल बनकर अब खडे़ हम मौत की महफ़िल में हैं| सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है| गूँजती चीखें जो निकली थी हमारी आह सी, याद है इतिहास को जो भेंट दी थी जान की, काल से पूछो भला क्या क्या किया बिस्मिल ने है| सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है| याद रखना ऐ वतन वालों हमें हरदम यहाँ, था हमारे वासते ये मुल्क ही सारा जहाँ, भूल ना जाना भरा था इश्क जो इस दिल में है| सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल

कलम 

शब्द शब्द में आग लगाती, कलम उगलती चिंगारी  कभी करे श्रृंगार जगत का, कभी विनाश की तैयारी|    कभी खड्ग सी वार करे और कभी घाव पर मरहम सी  कभी समर संघोष करे और कभी करे जग में शान्ति| अमित अनल संचार शरों में करे, कलम की शक्ति अपार  सिंहासन तक हिल जाते हैं जब जब शब्द करें हुंकार| शस्त्र कलम सी नहीं जगत में,कलम वीरता की भरमार  क्रान्ति बीज बोती कागज़ पर,गढ़ती नये नये अंगार| -रजत द्विवेदी

भोर की पुकार.. 

उठ जाग मुसाफ़िर छोड़ चल ये रैन बसेरा,  दिन हुआ नया अब आगे बढ़, देख मंज़िल पुकार रही| घने कुहासे से निकल,रश्मियाँ जगत चमका रहीं,  चल छोड़ आलस, नींद त्याग, देख जिंदगी मुस्का रही| उठ जाग,रगों में आग लगा, दे खुद को यह वरदान अभय,  हर कर्म में प्रशस्त हो, हर तरफ़ सुने सब तेरी जय| मद मोह में देख सभी मरते, ये रैन बसेरा उनका है,  तू नहीं यहाँ का न ये तेरा,तू पथिक विजय की राह का है| अमरता का नया वरदान ले नया इतिहास लिख दे,  सुरा पीकर सभी मरते, तू विष का पान कर ले| -रजत द्विवेदी

मोहल्ला....

हैरत में है मोहल्ला..  क्या खूब वो अपनी जिंदगी बसर करता है| इबादत-ए-खुदा में पिता को याद करता  और सजदे अपनी माँ को नज़र करता है| हैरत में है मोहल्ला...  कैसे वो दिन गुज़ारा करता है| कभी भटकता राहगीरों की तरह  कभी आबाद नगर के राजा सा चलता है| हैरत में है मोहल्ला...  किस तरह वो खुश रहता है| कभी मंदिरों में दान किया करता  कभी गुरुद्वारों में लंगर खीलाता है| हैरत में है मोहल्ला...  कैसे कुछ भी किसी से नहीं कहता| किसी पंचायत में नहीं पड़ता साहब  बस ख़ुद में खुश रह लेता है| हैरत में है मोहल्ला...  ये कैसा आदमी है?  सब में रह कर भी सबसे अलग है  कभी घुल मिल कर रहता सबसे  कभी बैरागी होकर फिरता अलग है| -रजत द्विवेदी