हैरत में है मोहल्ला..
क्या खूब वो अपनी जिंदगी बसर करता है|
इबादत-ए-खुदा में पिता को याद करता
और सजदे अपनी माँ को नज़र करता है|
हैरत में है मोहल्ला...
कैसे वो दिन गुज़ारा करता है|
कभी भटकता राहगीरों की तरह
कभी आबाद नगर के राजा सा चलता है|
हैरत में है मोहल्ला...
किस तरह वो खुश रहता है|
कभी मंदिरों में दान किया करता
कभी गुरुद्वारों में लंगर खीलाता है|
हैरत में है मोहल्ला...
कैसे कुछ भी किसी से नहीं कहता|
किसी पंचायत में नहीं पड़ता साहब
बस ख़ुद में खुश रह लेता है|
हैरत में है मोहल्ला...
ये कैसा आदमी है?
सब में रह कर भी सबसे अलग है
कभी घुल मिल कर रहता सबसे
कभी बैरागी होकर फिरता अलग है|
-रजत द्विवेदी
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