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Showing posts from September, 2018

जगतपति

मैं कोटि कोटि, ये अनंत विस्तार है मेरा, हिम से जलधी तक समग्र संसार है मेरा। है रूप मेरा जिसमें जग दर्प दिखता है, मेरे नेत्रों में ही प्रकाश जगता है। मेरे अधरों पर ही खिलती हैं लताएं, सजती माथे पर ज्योतित दीपशिखायें। सांसों में उठता ज्वार न बंध सकता है, आंखों में पलता अंगार न बुझ सकता है। मैं रोक सकूं पृथ्वी की चाल, गति को, दूं दान ज्ञान का जड़ मूड़ मति को। मैंने ही जग को गीता ज्ञान दिया है, अर्जुन को उसकी पहचान दिया है। मैं स्वयं वेद हूं, मानस भी स्वयं मुझी में, गीता, पुराण का तत्व बसा है मुझमें। लेता हूं जब जब जन्म नया मैं जग में, सुर हर्षित सभी होते अनंत उस नभ में। शंकर का मुझ में ही प्रतिबिंब दिखता है, मेरे संकेत से ही संहार जगता है। और मेरी इच्छा से ही सृष्टि चलती है, सारे जग में जीवन कलियां खिलती हैं। ले धार मुझे तू अब अपने इस मन में, होगा न भय, न संशय फिर कुछ जीवन में। तू मेरा है एक अंग, हूं शर मैं तेरा, जन्मों का नाता है तेरा और मेरा। बस रूप नए नए लेकर हम आते हैं, पर प्रेम एक दूजे के हिय ही पाते हैं। सारे जग क

मनुज

गगन के चांद तारों सा ये जग में कौन शोभित है? कि नभ में आज फिर से ये किसका नाम गूंजित है? भला ये कौन है जिसपर स्वयं को काल मोहित है? मनुज ये कौन है जिसका समय पर नाम अंकित है? है नर या देव है या कि कोई गंधर्व किन्नर है? उजागर किस दिवाकर की प्रभा से इसका तन मन है? कि है कोई स्वयं में शक्तिपुंज जो ख़ुद उजागर है, उदित होता स्वयं जो सूर्य सा बन इस जगत में आज। विभा कोई चंद्रमा की या कि जुगनू का मेला है, प्रदीपित है जो यूं इंसा जगत में वो अकेला है। जले जो ख़ुद यहां और दूसरों को नूर देता है, वो मानव ही जगत में हर हवस से दूर होता है। हवस ना कीर्तियों की हो, न हो कुछ चाह शोहरत की। हवस ना हो विजय की, ना ही हो चिंता पराजय की। निरंतर जो करे बस कर्म, जो अपना धर्म जानता हो। स्वयं को वार देना औरों के हित कर्तव्य मानता हो। जो सम या कि विषम हर परिस्थिति में एक सा होता, जो जग की माया में पड़ कर कभी खुद को नहीं खोता। वही नर है सदा पूजित, जगत में नाम है उसका, समूचे लोक में ज्योतित, 'मनुज' ही नाम है उसका। - रजत द्विवेदी

आओ साथी...

आओ आओ आओ साथी थोड़ा हांथ बढ़ाओ साथी, चट्टानों से रार लगी है तुम भी साथ निभाओ साथी। क्यों खुद को अलग समझते हो तुम तुम भी तो हम जैसे ही हो। वक़्त बदलने की इक्छा तो तुम भी मन में रखते ही हो। फिर क्या भेद है तुम में, हम में एक से ही हो जाओ साथी। आओ आओ आओ साथी थोड़ा हांथ बढ़ाओ साथी। पांच उंगलियां मिली तो मुट्ठी, बिखर गए तो नहीं हम कुछ भी। साथ चले तो मिलेगी मंज़िल, अलग हुए तो राह ही भटकी। एक चाह, जब एक राह है, तो मिलकर सब आओ साथी। आओ आओ आओ साथी थोड़ा हांथ बढ़ाओ साथी। विपदाओं से डरना क्यों है,  राह से अब मुकरना क्यों है। एक बार जो वक्त बीत गया, पछतावा फिर करना क्यों है। जो करना है, अभी कर चलो पाछे ना फिर पछताओ साथी। आओ आओ आओ साथी थोड़ा हांथ बढ़ाओ साथी। - रजत द्विवेदी

अभिनंदन

अभिनंदन है , अभिनंदन इस नई सुबह का अभिनंदन दिनकर का भी हो अभिनंदन हर वन्य कुसुम का अभिनंदन भंवरों का भी हो अभिनंदन वन जीवन का हो अभिनंदन। हर शाख़ लता का अभिनंदन हर नई घटा का अभिनंदन कोयल का हो अभिनंदन मयुरों का भी अभिनंदन सिंहों का भी अभिनंदन गजराजों का भी अभिनंदन। हर नगर गली का अभिनंदन हर चौबारों का अभिनंदन लगता है सुबह का रेला जहां हर उस कूंचे का अभिनंदन हर घर का हो अभिनंदन आंगन गलियारे का अभिनंदन। हर किसी से करें अभिनंदन हर किसी का करें अभिनंदन आई है सहर आज ये नई घर में हो इसका अभिनंदन भर दे किरणें ये खुशियों की सब करें आओ अभिनंदन। -रजत द्विवेदी