मैं कोटि कोटि, ये अनंत विस्तार है मेरा, हिम से जलधी तक समग्र संसार है मेरा। है रूप मेरा जिसमें जग दर्प दिखता है, मेरे नेत्रों में ही प्रकाश जगता है। मेरे अधरों पर ही खिलती हैं लताएं, सजती माथे पर ज्योतित दीपशिखायें। सांसों में उठता ज्वार न बंध सकता है, आंखों में पलता अंगार न बुझ सकता है। मैं रोक सकूं पृथ्वी की चाल, गति को, दूं दान ज्ञान का जड़ मूड़ मति को। मैंने ही जग को गीता ज्ञान दिया है, अर्जुन को उसकी पहचान दिया है। मैं स्वयं वेद हूं, मानस भी स्वयं मुझी में, गीता, पुराण का तत्व बसा है मुझमें। लेता हूं जब जब जन्म नया मैं जग में, सुर हर्षित सभी होते अनंत उस नभ में। शंकर का मुझ में ही प्रतिबिंब दिखता है, मेरे संकेत से ही संहार जगता है। और मेरी इच्छा से ही सृष्टि चलती है, सारे जग में जीवन कलियां खिलती हैं। ले धार मुझे तू अब अपने इस मन में, होगा न भय, न संशय फिर कुछ जीवन में। तू मेरा है एक अंग, हूं शर मैं तेरा, जन्मों का नाता है तेरा और मेरा। बस रूप नए नए लेकर हम आते हैं, पर प्रेम एक दूजे के हिय ही पाते हैं। सारे जग क
कलम की स्याही से हर पल नया अंगार लिखता हूँ