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Showing posts from June, 2019

विद्युत की इस चकाचौंध में.....

विद्युत की इस चकाचौंध में देख दीप की लौ रोती है। बहु नयनों में अंधियारा है, चंद घरों में ज्योति है। यह समाज क्यों गर्त में पड़ा, सुख की तान सुनाता है। थोथी बात बखाने ख़ुद की, तम से घिरता जाता है। आज पतन की राह पर चला है कारवां मानव का। भूख से ग्रसित तड़प रहे घर, खुल गया मुख दानव का। नगर के एक छोर पर देखो भात दाल ना रोटी है। दूजी ओर लुटाते देखो व्यर्थ में ही लोग मोती है। ये कैसा है फ़र्क जगत का एक हांथ में है लक्ष्मी, दूजे में है लिए हुए जो बिलख रही भूखी बच्ची। कहो क्यों भला नियति की झोली इतनी छोटी है। एक वर्ग को कंकड़ देता, दूजे को दे मोती है। विद्युत की इस चकाचौंध में देख दीप की लौ रोती है। बहु नयनों में अंधियारा है, चंद घरों में ज्योति है। - रजत द्विवेदी https://www.yourquote.in/rajat-dwivedi-hmpx/quotes/vidyut-kii-ckaacaundh-men-dekh-diip-kii-lau-rotii-hai-bhu-yh-r8tsi

कल्की अवतार

अंत विश्व का आने को है, पाताल में धरा समाने को है। है पाप चरम पर आ पहुंचा, ये कलियुग के अंत की है कथा। ले समय को अपना साक्ष मान, करता हूं कलियुग का बखान। है कल्पना ये भावी दुनिया की, जिसमें होगा बस छल महान। भाई से भाई लड़ता है, अब पिता पुत्र से डरता है। माता तिरस्कृत होती है। नर नारी को बेचा करता है। हत्याएं चरम पर आ पहुंची, संस्कृति गर्त में डूब चुकी। ईश्वर के नाम पर लड़ते सब, तलवार से खेला करते सब। आडंबर के पोंगे पंडित हैं, निष्क्रिय थके से क्षत्रिय हैं। बनिये बाज़ार में बिक गए, श्रम से श्रमिक घबराते हैं। पढ़ने को कोई नाम नहीं, इस सृष्टि पर अब राम नहीं। बस राम राम सब करते हैं, मन में न राम को धरते हैं। बालाएं बिकती चौबारे पर, काली सड़कें, अंधियाले घर। नर जो अन्याय से लड़ता है, बस खड़ा खड़ा बिक जाता है। कोई नहीं "सत्यधारी" यहां, बस दिखते "सत्ताधारी" यहां। सत्ता के लिए बस लड़ते हैं, निर्मम हत्याएं करते हैं। करते बदनाम ये "राम" का नाम। धर्म पर लड़ना इनका काम। गंगा मां सूखी जाती है। जनता ना तरस दिखाती है। हिमरा

कामायनी

ओ जीवन की अमित कल्पना, ओ माया की सुंदर प्रतिमा। जग में नहीं है कोई ऐसा, तुझ सम जिसकी हो प्रतिभा। तू अनुपम, तू सुधामई, तू नैतिकता की है गरिमा। ख़ुद की तुलना करते सब तुझसे, तुझको दूं किसकी उपमा? चिंता, आशा, श्रद्धा, शोक, विभोर, ईर्ष्या, और इच्छा। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, माया, जड़ता और विद्या। हे "कामायनी"! ये सभी तत्व एक तेरा ही तो दर्पण हैं। मानव का जीवन जिन में बंध बन गया स्वयं एक उलझन है। तुझ में है दर्पित विवशता मन की, तन की पीड़ाएं अंकित हैं। तेरी आदतों में जीवन की दुविधाएं सारी चिंहित हैं। हे "कामायनी"! तू नारी एक मानव का चित्रण करती है। खालीपन जो है उसका, उसमें प्रकाश तू भरती है। मानव कितना सरल जटिल है, तुझसे मापा जाता है। तेरे सभी तत्वों से ही एक मनुज को रूप मिल पाता है। हे "कामायनी"! तू ही तो आधार है इस सारे जग का। तेरे रूप की पुण्य विभा से ही संसार है जगमग सा। - रजत द्विवेदी

झांसी की रानी

चिंगारी बन गई लहू की बूंद, धरा मुसकाई थी, शबनम के भीतर से जब एक आग निकल कर आई थी। मातृभूमि के लिए एक बेटी ने जान गवाई थी, अरि दल कांप गए रण में जब लक्ष्मी बाई आई थी। हांथ खड़ग और तेज सूर्य सा मुख पर लिए आई रानी, देख विभा उस सिंहनी का रिपु दल हुआ पानी पानी। रण कौशल ऐसा था जिसको देख पुरुष भी थर्राए, रण चंडी को भेंट चढ़ाने अरि मुंडों को ले आए। और लगा दी आग धरा पर नई फसल उगाई थी, क्रांति बीज में से रानी ने चिंगारी सुलगाई थी। है स्वदेश ये धन्य आज जो रानी का है उपकार हम पर, जलती रहेगी उसके नाम से इंकलाब की आग अमर। - रजत द्विवेदी

पिता..

ज़मीं से आसमां को जोड़कर देखा है, फलक से चांद को तोड़ कर देखा है। है बस एक ही वो शक्स ऐसा जहां में, जिसने हवाओं को मोड़कर देखा है। कि होती ना गुंजाइश कभी बाकी घर में कि किसी की घर में हसरतें अधूरी हों। जो है वो इंसान रूपी फरिश्ता घर में, तो हर एक ज़िद हमारी पूरी हो। कोई चट्टान सी एक ढाल हो जैसे जो घर को हर दफा बचाता है। या कि कोई बागबान फूलों का, जो बस प्रेम ही बरसाता है। चिंता लाख सताती हैं मन को, मगर ना किसी को भी बताता है। जो बिखरे तो दरिया सा बहता है, जो सिमटे तो चट्टान हो जाता है। है कहां कौन पिता सा दूजा, जो बिना कहे प्रेम जताता है। जिसे सब लोग देवता कहते हैं, वो जहां में "पिता" कहलाता है। - रजत द्विवेदी https://www.yourquote.in/rajat-dwivedi-hmpx/quotes/jmiin-se-aasmaan-ko-joddkr-dekhaa-hai-phlk-se-caand-ko-todd-roq6f

नाखुदा....

नाखुदा इस आंधी में पतवार की ना सोच, डूबना जो तय तो फिर मझधार की ना सोच। है नहीं किस्मत में शायद साहिल-ए-मकसूद, बीच दरिया में तू जीत या हार की ना सोच। यह बहर जो उठ रही है चूमने को अंबर, घेर लेगी तुझको ऐसे बीच बांह भरकर। जो अगर तू धंस गया थोड़ा भी घबराकर, मर चुका होगा तू यूं ही बीच घुट घुटकर। कल क्या होगा इसका तू कुछ आज में ना सोच, आज के तूफां से लड़ जा, कुछ बाद की ना सोच। - रजत द्विवेदी

मैथिलशरण गुप्त जी को समर्पित....

पुलकित प्रकाश मुख पर लेकर। हम चले रवि को प्रभा देकर। कर में ले कलम की आग प्रखर। आए रचने इतिहास अमर। हम कौन थे, भले हमें याद नहीं। क्या होंगे, बेशक ज्ञात नहीं। किन्तु यथार्थ यह अपना है, जो बीत चुका वह सपना है। जो आज को अपना कहते हैं। कल वही सुखी रहा करते हैं। पग जल में जो धरा करते हैं, वो ही नदिया से तरते हैं। हमने समस्याएं देखीं है सब, बाधा उखाड़ फेंकी हैं सब। जग में है नाम किया अपना, जग को बलिदान दिया अपना। फिर क्यों बिफरें हालातों से? फिर क्यों बिखरें परेशानी में? गर हार गए तो भी क्या ग़म? हम क्यों जीतें बेईमानी से? अपनी तो यही पहचान रही। ज़िन्दगी ईमान का नाम रही। जो ग़लत, उसे हम ग़लत कहें। जो सच है वही बस लगा सही। - रजत द्विवेदी

पराजय...

ज्वलनशील एक तत्व शरीर में रह रह कर उठता है, मनोबल ऊंचा रहता जिस कारण, कभी नहीं झुकता है। वो क्या है जो मानस पटल पर सदा को ही रुकता है? वो क्या है जो घाव बनकर हृदय को नित दुखता है। वह पराजय है मनुज की, जो उसे सदा सताती है, भीतर भीतर ही जलती है, आप ही खा जाती है। यदि बुझे ना आग वो तन की, तो भीषण लपटें उसकी, मानव का विवेक, बल, बुद्धि, सब कुछ मिटा जाती हैं। है ज़रूरी इसीलिए कि तुम मन भीतर झांको, कितना हार चुके हो जग से आप स्वयं तुम आंको। इससे पहले ये आग दहन कर जाए तेरे तन को, उसको ज्योति बना अपनी तू साध ले अपने मन को। - रजत द्विवेदी https://www.yourquote.in/rajat-dwivedi-hmpx/quotes/jvlnshiil-ek-ttv-shriir-men-rh-rh-kr-utthtaa-hai-mnobl-rhtaa-rehie

शुक्र है भगवान अभी तक धरती पर नहीं आए..

शुक्र है भगवान अभी तक धरती पर नहीं आए.. इंसान अपने स्वार्थ के लिए मंदिर तक बांट जाए, शुक्र है भगवान अभी तक धरती पर नहीं आए। जो वापस आते राम इस घोर कलियुग में तो कहां जाते, उनका घर मंदिर तो सियासत के ठेकेदार खा गए। शुक्र है भगवान अभी तक धरती पर नहीं आए.. भगवान अपने भक्तों के हृदय में वास करते हैं सुना है, भक्त तो देखो भगवान का घर ही उड़ा गए। आज पुण्यभूमि सत्ता की रंगशाला बन गई है, अब यहां कोई भक्ति का दीप कैसे जलाए? शुक्र है भगवान अभी तक धरती पर नहीं आए.. चंदन सी महक उठती थी राम के भारत की धरती, आज तो यहां बस रक्त की गंध ही उड़ती है ओर। रंग, जात, धर्म के भेद का दिखता नहीं कोई तोड़। ऐसे में भगवान भी कहो किस को अपना बनाएं। शुक्र है भगवान अभी तक धरती पर नहीं आए.. - रजत द्विवेदी https://www.yourquote.in/rajat-dwivedi-hmpx/quotes/shukr-hai-bhgvaan-abhii-tk-dhrtii-pr-nhiin-aae-insaan-apne-rd55d

बिस्मिल की याद-२

आज जन्मा है जो शोला क्रान्ति की महफ़िल में है, वो नहीं बुझता कभी, अब डर कहां इस दिल में है। खींच ली है इक लकीर अब हांथ पर जो मौत की, क्यों डरूं मैं अब भला जब मौत मुस्तकबिल है! कर चुका अंतिम दुआ अब रब से मांगू क्या भला, ज़िंदगी की भीख ना चाही कभी "बिस्मिल" ने है। मांगता अहल-ए-वतन की ज़हन में थोड़ी जगह, गर करें वो याद कभी क्या क्या किया बिस्मिल ने है। ज़िंदगी निसार मुल्क पर कर चुका कबका भला, अब तसल्ली होगी गर मेरी याद हर इक दिल में है। - रजत द्विवेदी https://www.yourquote.in/rajat-dwivedi-hmpx/quotes/aaj-jnmaa-hai-jo-sholaa-kraanti-kii-mhphil-men-hai-vo-nhiin-rgb8r

आमर्त्य

तरल घूंट विष का पीकार आमर्त्य विभा को चूम गया, गरल के मद में चूर पड़ा वो मद्यप जैसा झूम गया। जीवन कुछ कठोर था होश में रहकर देखा जो, और सरल हो गया हलाहल को छूकर जब देखा तो। विष का पान किया जो मैंने, शंकर सम मैं अमर हुआ, ज्वालाओं में बहु बार हूं झुलसा,फिर भी जग में अजर हुआ। मधु का पान किया करते जो बेशक जीवन जीते होंगे, मगर कहां बल उनमें ऐसा जो वो विष पीते होंगे। बड़े भाग हैं उसके जो विष को मय समझ पी जाता है, लड़ता जो जग से, परहित में आप स्वयं कट जाता है। आलिंगन करता मृत्यु का, जीवन से प्रेम निभाता है, औरों को देकर जीवन वो, स्वयं बली चढ़ जाता है। - रजत द्विवेदी https://www.yourquote.in/rajat-dwivedi-hmpx/quotes/aamrty-trl-ghuuntt-viss-kaa-piikaar-aamrty-vibhaa-ko-cuum-ke-q74k9