किसी विपिन में खिला कुसुम ज्यों घिर कर तीखे काँटों से जन्मी एक ज्योति पौरुष की, थी भरी हुई संतापों से। हुआ जन्म जब वीर कर्ण का गंगा नदी किनारे राजकुमारी पृथा चली ले शिशु को घाट संकारे। लोक लाज में फंसी कुंवारी माता तड़पती जाती है ममता और प्रतिष्ठा बीच पृथा सोचती जाती है। किसे चुने वो लाज या कि पुत्र,किसका रक्खे मान यहाँ? पुत्र चुने तो मान घटेगा,मान चुना तो पुत्र गया। आखिर चुनकर मान प्रतिष्ठा त्याग दिया बालक को बहा दिया पुत्र गंगा में, लौट चली फिर घर को। बहता हुआ वो बालक नद में दिखा चमकता जल में कवच और कुण्डल धारी वो दमक रहा अम्बरतल में। अधिरथ घर के निकट पहुँच जब चमकी ये पुण्य ज्योति राधा निकल घर से आई,भरली अपनी सुनी झोली। राधा का पुत्र अब ये कर्ण राधेय कहलाया विस्मय है नियति का लेखा, क्षत्रिय सूत घर आया। बीत गए कई वर्ष काल का चक्र हो रहा भारी युवा हुआ राधेय शर में सुलगने लगी चिंगारी। आ पहुंचा बीच रंगभूमि लगा ललकारने पार्थ को द्वन्द युद्ध को पुकार रहा आँख दिखाता पार्थ को। रंगभूमि में सज रही महाभारत की पृष्ठभूमि जाति नाम पर कर्ण का खण्डन करते फिर पांडव
कलम की स्याही से हर पल नया अंगार लिखता हूँ
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