ज्वलनशील एक तत्व शरीर में रह रह कर उठता है,
मनोबल ऊंचा रहता जिस कारण, कभी नहीं झुकता है।
वो क्या है जो मानस पटल पर सदा को ही रुकता है?
वो क्या है जो घाव बनकर हृदय को नित दुखता है।
वह पराजय है मनुज की, जो उसे सदा सताती है,
भीतर भीतर ही जलती है, आप ही खा जाती है।
यदि बुझे ना आग वो तन की, तो भीषण लपटें उसकी,
मानव का विवेक, बल, बुद्धि, सब कुछ मिटा जाती हैं।
है ज़रूरी इसीलिए कि तुम मन भीतर झांको,
कितना हार चुके हो जग से आप स्वयं तुम आंको।
इससे पहले ये आग दहन कर जाए तेरे तन को,
उसको ज्योति बना अपनी तू साध ले अपने मन को।
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