सफ़र पर निकला एक
मुसाफ़िर,हांथ लगी बस रेत मुसाफ़िर...
आलम से ही है घूम रहा,
अपनी ही कज़ा को ढूंढ रहा,
जो कुछ भी रहा इनके
दर्मियां, वो एक अंजान सफ़र ही था।
इस जग में भटकता रहा
मुसाफ़िर, हांथ लगी बस रेत मुसाफ़िर..
रिश्ते जोड़े,
नाते जोड़े, कभी दिल टूटा, कभी दिल तोड़े,
कुछ मीत बने,
कुछ यार हुए, कुछ से फिर कई तकरार हुए।
मिलता बिछड़ता रहा
मुसाफ़िर, हांथ लगी बस रेत मुसाफ़िर...
घर छोड़ा,
घरवाले छोड़े, शोहरत के लिए नाते तोड़े,
यूं भटक भटक कर शहरों
में, जीने की किश्तें जुटा रहा।
किश्तों में जीता रहा
मुसाफ़िर, हांथ लगी बस रेत मुसाफ़िर...
फिर कभी मिला कोई ऐसा,
जो रहा ज़िंदगी के जैसा,
पर उसका भी साथ छूट
गया, एक और आशियां टूट गया।
हर पल यूं टूटता रहा
मुसाफ़िर, हांथ लगी बस रेत मुसाफ़िर...
लो छोड़ जगत बैराग
लिया, जग मोह जाल से भाग लिया,
फिर भटकता रहा सेहरा
में, सब से नाता फिर तोड़ दिया।
लेकिन बैरागी बनकर भी,
थी हांथ लगी बस रेत मुसाफ़िर...
आई फ़िर मौत जब उससे
मिलने, कुछ नहीं हांथ फिर उसके था,
था छूटा अब सब कुछ
उससे, क्या कहे साथ अब किसके था।
ना मिला ज़िंदगी में
कुछ भी, थी हांथ लगी बस रेत मुसाफ़िर…
-रजत द्विवेदी
Comments
Post a Comment