न जाने कितने भेड़िये, फिर रहे थे ताक में,
अा फसीं जब मासूम जान इक, बीच उनके जाल में,
लूट ली अस्मिता उसकी, मौज के फिराक़ में |
पर पूछो तो ज़रा उस बदनसीब जान से,
क्या खोया उस रात उसने,
रूह तो काँप गई ही थी,
साँसे भी थम गई सी थी |
पर और क्या हुआ कभी सोचा है??
क्या हुआ हाल उसके माँ-बाप का?
क्या हुआ हाल उसके भाई-बहनों का?
क्या हुआ हाल उसके प्रेमी का?
जो लाज गई तो क्या अब उसको निष्ठुर समाज अपनाएगा?
सीता या पाँचाली जैसे या उसे भी ठुकारएगा?
सच है शायद पुरुष हो कर मैं ये सब नहीं कह सकता हूँ |
पर बतलाओ हैवानियत को, मैं भला कैसे सह सकता हूँ |
ये कैसी मर्दाना शक्ति है, जो पल भर ही टिक सकती है?
मौज करने को आतुर हैं, पर जिम्मेदारियाँ ना ले सकती हैं?
कहने को यदि पुरुष हो कहते, तो भला कहो पुरूषार्थ है क्या?
बल से अगर प्रेम हो पाते, तो ऐसे प्रेम का अर्थ है क्या?
द्रौपदी तो बहुत यहाँ हैं, हैं बहुत दुशासन जैसे भी,
पर मैं पूछ रहा हूँ आज बता कौन है राम यहाँ?
करता ज्यादती मनुज पर, नारी का तुझको मान नहीं,
क्या भूल गया तू बैठी हैं तेरी माँ बहने भी दूर कहीं?
मैं ना कहता तू मान सभी को अपनी माता और बहन,
पर एक बात तू गाँठ बाँध ले, अपमान उनका न होगा सहन |
यदि प्यार किसी से हो तुझको तो उसका तू इज़हार कर,
पर कभी नहीं उस पर अपने बल पौरुष का प्रचार कर |
जो अाग लगी हो छाती में, तो पौरुष को कर अभय दिखा |
सूखे में हरियाली ला, बंजर जर उपजाऊ कर दिखा |
पर खुद की करनी से तू मत मर्द जात पर कालिख़ मल,
हमारा नाम बदनाम रहे मत ऐसा कोई काम तू कर |
यदि प्यार किसी से करता हो, तो उसकी लाज बचाना तू |
माँ बाप भी गर्व करे तुझ पर, ऐसा काम कर जाना तू |
-रजत द्विवेदी
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