ओ मोहरहित, निर्मम मृत्यु बता भला की कौन है तू?
क्या बल ऐसा भरा तुझमें, जिससे डरता सकल जग यूँ
कि जैसे कोई विकट शत्रु हो गया खड़ा दुष्कर गिरी सा
जिस पर अब पाँव बढ़ाकर के जय प्राप्त करना मुश्किल हुआ|
ओ अटल सत्य, अजय मृत्यु,एक भेद बता मुझको अब तू
तू कालजयी सच होकर भी, क्या कभी डरी किसी से तू?
क्या कोई ऐसा हुआ यहाँ जो तुझको तक भयभीत करे?
क्या कोई ऐसा हुआ यहाँ जो काल को तुझसे जीत सके?
ओ पथिक, हूँ मैं निर्मम मृत्यु कोई मोह नहीं मेरे मन में
मैं अटल सत्य प्रकृति का, भय बनकर फैली जन जन में|
हाँ,मैं एक दुष्कर मंज़िल सी हूँ जिसपर कोई पार न पा सकता
मैं परम सत्य हूँ नियति का, जिसको ना कोई झुठला सकता|
कालचक्र के फेरे में मैं सबके प्राण हरती हूँ,
नये सृजन के लिए, जगत का संहार करती हूँ|
मगर सत्य है यह भी कि मैं भी किसी से डरती हूँ
एक बार किसी को छूने से पहले सौ बार सिसक कर ठहरती हूँ|
कोई धनी नहीं, ना व्यापारी, ना ही कोई राजा है वो
बस एक वीर मातृभूमि पर मरने वाला, भुजबल का अधिराजा है|
जो समरभूमि में अडिग खड़ा नियति का फेर बदलता है
काल के कपाल पर अपना इतिहास गढ़ता है|
हाँ एक भेद यह भी है, कोई और भी मुझे विचलित करता है
वह कलम का सिपाही, वह कविराज जो शब्दों में अंगारे भरता है|
वह कथाकार जो शब्दों से रंगीन दुनिया गढ़ता है
इतिहास के पन्नों पर अपनी पहचान अमर करता है|
-रजत द्विवेदी
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