करो
श्रृंगार मातृभूमि का,
कुमकुम और कमल से,
रग
रग में भर कर चिंगारी,
सीचों हृदय अनल से|
यही
मनोहर क्षण सृजन का,यही समर की बेला,
गढ़ने
को इतिहास समर में लगा वीरों का मेला|
सुनो
कथा उस पुण्य भूमि,
उस कुरूक्षेत्र के रण की,
रक्खी
गई थी नींव जहाँ पर,न्याय और धर्म की|
सच
है नयी जागृति हेतु पूर्ण शयन निश्चित है
सकल
जगत के नये सृजन के लिए संहार निमित है|
कुरुक्षेत्र
रणभूमि सजी है बडे़ बडे़ भटों से,
पार्थ, कर्ण,अभिमन्यु,भीम, भीष्म और सुयोधन से|
कोई कर रहा मान धनुष पर,कोई गदा के बल पर,
कोई संभाले खड़ा खड्ग है, कोई भाल को धरकर।
एक
तरफ़ है पांडव सेना,
दूजी ओर कुरु हैं,
एक
तरफ़ हैं वीर दृष्टयद्मन,
उधर द्रोण गुरु हैं|
इधर
संग स्वयं नारायण,
उधर भीष्म पितामह,
धर्म
के साथ खड़े हैं गिरधर,
हैं वचनबद्ध पितामह|
एक
ओर है धर्मराज धर्मध्वजा को साधे,
दूजी
ओर सुयोधन बैठा अभिमान की पगडी बाँधें|
पापवंत
दुशासन बैठा लिए कपट की गागर,
जिस
गागर को तोड़ना चाहें भ्राता भीम भृकोदर|
एक ओर है सत्य खड़ा बीच में, घिर कर विपदाओं से
दूजी ओर है फूल रहा अधर्म यूँ भरकर घमंड से।
बड़े महाभट दोनों ओर हैं कहें बली हैं कौन,
देख ये जमघट रणधीरों हुआ समय भी मौन।
शंख घोष फिर हुआ समर का,गूँज उठी रणभेरी,
जय जयकार लगा शम्भू का, प्रकट हुई रणचंडी।
मगर युद्ध में खड़ा पार्थ फिर तनिक विचलित होता है
कुछ संशय बाकी था मन में, केशव से कहता है।
'हे माधव, रथ बीच समर लेकर चलो सारथी ,
युद्ध पूर्व मैं एक बार को निहारूं सभी महार्थी।'
चले कृष्ण फिर हाँक पार्थ रथ, पहुंचे बीच समर में,
देख रहा फिर पार्थ सभी को, फ़सा बीच भंवर में।
कैसे करूँ मैं वार हे केशव ? ये तो मेरे स्वजन हैं
लगता है कुलनाश का दोष अब शायद मेरे सर है।
देख मेरे इन स्वजनों को रण में, मैं विचलित होता हूँ,
छूठ रहा गांडीव हाथ से, मैं शक्ति खोता हूँ।
कहो नाथ क्या करूँ मैं अब ? कैसे इन पर अब वार करूँ?
कैसे लड़ूँ मैं महासमर ये ,कैसे नरसंघार करूँ?
उठे सकलजग नाथ कृष्ण,जय नारायण चक्रधारी
कहने लगे वचन पार्थ से मधुर फिर पीत पिताम्बर धारी।
देख
पार्थ उस ओर खडे़ वो कौरव मुस्काते हैं,
और
तुझे भयभीत देख,
मन में हर्षे जाते हैं|
पड़ा
मोह में,
शस्त्र छोड़ तू,पथ से भ्रमित है होता,
भूल
गया क्यों?
सूर कभी रण में अधीर न होता|
समय
हठी है बीते पर फिर ना वापस आयेगा,
रण को छोड़
जो किया शोक तो पीछे तू पछतायेगा|
क्यों पड़ता है मोह जाल में, कर्म प्रधान जगत है
जो जैसा करता है वैसा फल उसके निहित है।
तू रणधीर महाभट क्षत्रिय,भरतवंश का सूरज
परम प्रतापी भीम सहोदर, नकुल सहदेव का अग्रज।
सकल भारत की वीरों तेरी गिनती आती|
तू कैसे विचलित होता है भूल खुद की पहचान
क्या संशय है में तेरे, क्यों भूला धनुष संधान।
देख पार्थ ये सब नर तेरे स्वजन यहाँ नहीं हैं,
दिव्य ज्योति आत्मा की, ये तेरा कोई नहीं है।
सभी यहाँ नश्वर हैं, सभी यहाँ मरते हैं
माया जाल में सभी फसें हैं सभी जीते मरते हैं।
करते नहीं ध्यान मेरा, मोक्ष नहीं पातें हैं,
एक जन्म का बाद पुनः ये जन्म नया पातें हैं।
मगर पार्थ तू नहीं यहाँ का, ना यहाँ पर है कुछ तेरा,
तेरा तो नाता है मुझसे, तू मेरा, मैं तेरा।
तू नर है,मैं नारायण हूँ, युगों युगों से हम हैं,
हर युग मैं अवतरित होता हूँ,तू मेरा ही तो अंग है।
कभी राम पुरुषोत्तम का लेकर जन्म अवध में
शिलान्यास करता धर्म का,मर्यादा का जग में।
कभी रूप धरकर वामन का ,मांग बली से दान
करता मैं ही भरण विश्व का और जगत कल्याण।
मैं ही हूँ संहार जगत का, मैं ही विश्व सृजन हूँ
सब कुछ मुझ में,सब कुछ मेरा, मैं ही अनंत गगन हूँ।
भूल गए जो मुझे यहाँ पर,वही सदा मरते हैं
जो हैं मुझ में बसे हुए वो ही अमर रहते हैं।
सुन हे पार्थ ये गीता ज्ञान कि कर्म बड़ा बली है
कर्ता कर्म करे अपना,उसका धर्म यही है।
छोड़ सभी ये बंधन अपने कर मेरा तू ध्यान
समरभूमि पुकारती तुझको, कर धनुष संधान।
व्यर्थ प्रलाप छोड़ कर अर्जुन हुआ खड़ा फिर रण में
केशव के नतमस्तक होता, देखा नारायण को नर ने।
उठा लिया गांडीव हाँथ में, भरी आग फिर शर में
गूँज उठी जयकार पार्थ की भूलोक और अम्बर में।
जहाँ कृष्ण है वहाँ धर्म है, वहीं जगत कल्याण
जो छोड़े हरिनाथ साथ वो मूढ़मति अज्ञान।
कर्म प्रधान जगत में केवल कर्म सभी का बल है,
कर्म किये से सब कुछ मिलता, कर्मशक्ति सबल है।
-रजत द्विवेदी
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