क्या
लिखूँ फ़साना इश्क का,
कोई बात नहीं बचती है,
इतना
इंकलाब उगल चुकी है कलम मेरी, कि अब दवात नहीं बचती है|
गर
हुआ जन्म दुबारा मेरा,तो इतनी रज़ा मनाऊंगा,
इंकलाब
को छोड़,
तुझसे इश्क निभाऊँगा|
तेरे
माथे को चूम,
अपने नाम का तिलक लगाऊँ,
अपने
लबों पर बस तेरा नाम सजाऊँगा|
मगर
वक्त नहीं है अभी अाँचल में छिप जाने का,
धरती
को बेरंग छोड़ तुझे कुमकुम तिलक लगाने का|
गर
पुनर्जन्म हुआ मेरा,
तो तेरी बाहों में आऊँगा
एक
पल को क्या ताउम्र को,
बस तेरा ही हो जाऊँगा|
अभी
सताती है मुझको पल पल मादरे वतन की याद,
नहीं
छोड़ सकता मैं इश्क के लिए इंकलाब|
इबादत-ए-इश्क में अभी मेरे ये हाँथ नहीं उठते,
ज़हन
में बसे हुए क्रान्ति के जज़्बात नहीं मिटते|
-रजत द्विवेदी
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