मिलता ही नहीं कोई मुनासिब ठिकाना
इस दहर में सुकून से जीने को
हर तरफ़ बस बारूद के ढेरों पर जिंदगियाँ पड़ी हैं|
हर तरफ़ खौंफ का आलम बिखरा हुआ है
आबोहवा में हर ओर बस मौत भरी है|
कभी जो हुआ करते थे मोहब्बत की खिश़्तों से सजाये आशियाने
इस आंतक के साये में मलबा बनकर पड़े हैं|
किसे पुकारें मदद का कोई हाँथ नहीं दिखता
नगर नगर के चौराहों पर सर कटी लाशें पड़ी हैं|
कोई अमन का चिराग जलता हुआ नहीं दिखता
हर तरफ़ आतंक का अंधेरा घना है|
इससे बेहतर तो कज़ा कूबूल करना होगा,
ऐसी ज़ीस्त से तो मौत भली है|
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