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ध्येय क्यों छोड़ दिया.....

मन किस वन में भटक रहा?
एकाग्रता अब कहां गई?
जितना मैं ध्यान लगाता हूं,
मिलता कोई भी उपाय नहीं।

आशाएं बांध रखी हैं भले,
पर किस विध सड़क तक जाऊं मैं?
मन के इस वन में कहीं कभी,
घुट घुटकर ना मर जाऊं मैं!

क्या दोष विपदाओं पर मढ़ दूं?
मैं आप स्वयं थक सा हूं गया।
घिस रहा पुरातन शजरों पर,
किस तरफ मिले कोई वृक्ष नया।

सच है शायद ऐसी ही तो होती
है इस मन की भटकन।
जिस को पाना दुष्कर हो जाता,
उसकी ही सोच में डूबते हैं हम।

एक पोखर के स्वछंद नीर सी
मन में होती है कोई अभिलाषा।
जिसके तट पर नित नित बैठे
हम बांधते हैं अगणित आशा।

किन्तु समय से पूर्ण नहीं होती है
जब वो अभिलाषा।
पोखर का वो स्वच्छ पानी
धीरे धीरे से है सड़ जाता।

अतः मन में फिर भर जाती है
हीनता, दुःख और घोर निराशा।
मनुज टूटकर कांच की तरह,
चारों ओर है बिखर जाता।

इससे भला है एक वक्त तक
किसी ध्येय पर ध्यान लगाना।
अथक प्रयासों बाद हारे तो,
उसे छोड़ आगे बढ़ जाना।

मंज़िल पाने की आशा
चाहे कितनी भी घोर भली।
किन्तु कई पराजय बाद भी,
खुद को छलना सही नहीं।

मनोबल जब भी टूटता है
कई बार हार जाने के बाद।
उठता नहीं इंसान कभी फिर,
ज़रा सी चोट खाने के बाद।

- रजत द्विवेदी


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