कहो कहां कब चला ज़ोर है योगी पर किसी छल का?
कर्मयोग ही सिद्ध विधा है जो प्रमाण है बल का।
एक तपस्वी ही तो है वो भी जो कर्म करता है।
कर्म साधना को ही जो बस अपना धर्म कहता है।
औरों के छल, कपट, स्नेह और प्रेमपाश से दूर,
कर्मयोगी संलग्न रहा करते हैं, योग में चूर।
जग का कुछ भी दुख सुख योगी को ना तड़पाता है।
योगी बस अपनी आराधना ही करता जाता है।
निष्फल है ऐसे मानव को अपनी ओर रिझाना,
जिस पर होता है सवार बस अपना कर्म निभाना।
ऐसे विरले होते जग में जो हो मोह से दूर।
कर्म में अपने लीन रहा करते जो जग को भूल।
कर्मयोगियों में प्रधानता होती है दृढ़ता की,
और भला पहचान कहां होती है कुछ प्रतिभा की।
मिथ्य सिद्धियों को पाकर जो व्यर्थ फूला करते हैं,
कहां कभी वो मूर्ख कर्म को पहचाना करते हैं।
- रजत द्विवेदी
कर्मयोग ही सिद्ध विधा है जो प्रमाण है बल का।
एक तपस्वी ही तो है वो भी जो कर्म करता है।
कर्म साधना को ही जो बस अपना धर्म कहता है।
औरों के छल, कपट, स्नेह और प्रेमपाश से दूर,
कर्मयोगी संलग्न रहा करते हैं, योग में चूर।
जग का कुछ भी दुख सुख योगी को ना तड़पाता है।
योगी बस अपनी आराधना ही करता जाता है।
निष्फल है ऐसे मानव को अपनी ओर रिझाना,
जिस पर होता है सवार बस अपना कर्म निभाना।
ऐसे विरले होते जग में जो हो मोह से दूर।
कर्म में अपने लीन रहा करते जो जग को भूल।
कर्मयोगियों में प्रधानता होती है दृढ़ता की,
और भला पहचान कहां होती है कुछ प्रतिभा की।
मिथ्य सिद्धियों को पाकर जो व्यर्थ फूला करते हैं,
कहां कभी वो मूर्ख कर्म को पहचाना करते हैं।
- रजत द्विवेदी
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