बँधी हुई ज़ंजीरों में भी गर मनमौजी मदमस्त रहे,
काटों से घिरकर भी जब गुलदाव्दी खिलता रहे,
और जब जब अँधियारे में बैठा मनुज ले प्रकाश को जान,
सच्चे शब्दों में आज़ादी की है यही असल पहचान|
खींची हुई लकीरों को भी लाँघ जब कोई भरे उड़ान,
चट्टानों के भीतर से भी जो खोज़ सके राहें अंजान,
और कभी जब क्षीण शरों में भरे पौरूष का अभिमान,
सच्चे शब्दों में आज़ादी की है यही असल पहचान|
नित नित नए ज्वार से लड़कर भी तर जाती गर केवट की नाँव,
शहर के शोर शराबे में भी यदि कोई ले सके राम का नाम,
और यदि मूर्खों के बीच भी जो गाये अमर गीता का ज्ञान,
सच्चे शब्दों में आज़ादी की है यही असल पहचान|
-रजत द्विवेदी
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