देखो विचारक तो ज़रा,है आज कितना शोभता।
ये राज है ध्रितराष्ट्र का ,है आज सुन्दर लग रहा ।
मानो घिरा फूलों से हो,हो कोई बाग महक रहा।
मानो चमकता हो वो नभ,सूर्य के प्रकाश सा।। १॥
क्यों ना भला हो आज शोभित,वो राज कुरु की सभा।
मिलने स्वयं नारायण ही, जब दूत बनकर आगया ।
लेकर संदेसा मैत्री का,केशव पहुंचे थे वहाँ ।
अभिमान से फूला हुआ, बैठा सुयोधन था जहाँ।। २॥
बड़भागी है ये विदुर जो, आज कृष्ण मोह में आ गया।
है एक प्रियतम प्रभु का,नर नारायण में समा गया।
वाह रे भीष्म भाग तेरा, तू नारायण को पा गया।
विदुर के संग मिलकर तू भी,नाथ कृपा को पा गया।।३॥
करते हैं अब आरम्भ वर्णन उस सुन्दर दृश्य का।
जिसमें दिखा था सब जनो रूप भीषण कृष्ण का।
नाथ ने दिखला दिया था रूप वो विराट तब।
मूढ़ मति सुयोधन ने चाहा उन्हें लूँ बांध जब ।।४॥
मांगने को पांडवों का हक़ थे केशव आ गए।
शांतिदूत बनकर सभी से शान्ति-संधि चाहते।
मांगते बस पांच गाँव,हित सभी का हैं चाहते।
पांडवों की ओर से,थे मित्रता ही मांगते।। ५॥
पर मति से मूढ़ वो सुयोधन था खड़ा हुआ।
चूर था घमंड में, हठ पर था अड़ा हुआ।
बोलता न दूंगा मैं तो एक पग भी भूमि अब।
हो दुखी बैठे रहे,बेकल हुए सभा में सब ।।६॥
रे मुर्ख है क्या कर रहा तू ,पूंछते यह द्रोण हैं।
मान का हैं सोचते,बैठे हुए सब मौन हैं।
कृष्ण बोले लग रहा है,तू अभी भी है हठी।
शान्ति संधि पांडवों की तुझको बिलकुल ना जचि ।।७॥
मांगता क्यों मौत है जब मिल रहा जीवन तुझे।
क्यों है पुकारता काल को, क्या कोई मोह ना तुझे?
लगता है भीमसेन की गदा,है तेरी मृत्यु चाहती।
तुझको तो बोली प्यार की, लगता नहीं अच्छी लगी ।।८॥
अपने ही अभिमान में, वो मुर्ख गलती कर चला।
बाँध लो इस ग्वाले को, है सैनिकों से बोलता।
सब चौंक कर हैं देखते, क्या कर रहा धूर्त है।
बांधता है सिंधु को, होकर ये पोखर मुर्ख है ।।९॥
जिसको न बाँध सका कोई,जो सारे जग को बांधते।
कृष्णचंद्र भगवान ही, हैं सारे जग को साधते।
ये ,मूढ़ मति सुयोधन तो, है लग रहा बौरा गया।
क्यों न पहचाने सत्य को,जब ईश्वर सामने आ गया।।१०॥
वाह रे अंधे ध्रितराष्ट्र तूने,कैसा ये है पूत जना ।
जो देख कर भगवान को भी कर रहा अब तक मना।
पर छोड़ इस मूरख को दो, ये तो अभी नादान है ।
ना देखता है शांतिदूत,जो स्वयं कृष्ण भगवान है ।।११॥
सारे जगत को धारते,वो कृष्ण विष्णुनाथ है।
मर्यादा की मूरत सदा साक्षात कौसलनाथ हैं।
राजा बलि से मांगते जो पग भूमि दान में।
वामन अवतार विष्णु के,तत्पर जगत कल्याण में।।१२॥
-रजत द्विवेदी
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