"मिथ्या का भार धरूं किस पर?
शब्दों के वार करूं किस पर?
किस पर घात का आरोप लगाऊं?
छल का मैं प्रयास करूं किस पर?
किस किस को अक्स दिखाऊं मैं?
क्यों ना आईना ही तोड़ जाऊं मैं?
सच सहने का जब बल ही नहीं,
तो कैसे कुछ कह जाऊं मैं?
औरों को कैसे टटोल सकता हूं?
किसी का भेद ख़ाक खोल सकता हूं।
जब मेरा वजूद मिथ्या लगता है,
तो भला किसे पापी कह सकता हूं?
मुझ में जो मेरी कमियां हैं,
मेरी ख़ुद की नाकामियां हैं।
उन को कैसे छुपाऊं मैं?
क्यों शर्म से ना मर जाऊं मैं?
सारा जीवन औरों को देखूं।
क्यों कभी नहीं ख़ुद में झाकूं?
जब स्वयं बदल ना पाऊं मैं,
तो कैसे दुनिया को बदलूं?"
ले यही सोच मुसाफ़िर वो
एकल ही चला जाता है।
लोगों की भीड़ में शामिल है,
ख़ुद को ना खोज पर पाता है।
हर रोज़ हूं ही चलता रहता,
ख़ुद से ही बातें करता है।
औरों को देखने से पहले,
ख़ुद में ही झांका करता है।
हां, मगर अभी तक खोज रहा,
वो कारण उसे मिल जाए जो,
जिस पर वो स्वयं पर गर्व करे,
तो ख़ुद ही संभल फिर जाए वो।
मन के सब दोष फिर दूर होंगे,
सब सुख उसके भी उर होंगे।
कमियां खूबियों से हारेंगी,
उसके सपने पूर्ण होंगे।
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