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अलगाव

इक शजर से टूट कर गिरता उसी का अंग था,
भेद क्या था उन में जो, वो एक जैसा रंग था।
हो अलग जो वृक्ष से वो टहनी बलखाने लगी,
इस तरह विद्रोह का भी एक अपना ढंग था।

हां मगर चमकने लगा आलोक जब उसमें अलग,
जीण वृक्ष से कुछ अलग दिखने लगा वह अंग था।
कहने को तो गलत था कि शजर से जो अलग हुआ,
हां मगर अलगाव से उसको मिला नया रंग था।

कभी कभी पहचान बनाने के लिए ये चाहिए,
हर दरख़्त की शाख को सब जुदा होना चाहिए।
फिर पता चलती अकेले की अलग पहचान है,
कौन कब तक को भला करता रहे अभिमान है।

ज़र्रे ज़र्रे को हयात से कभी कभी रूठना चाहिए,
हर किसी का किसी से कभी साथ छूटना चाहिए।
जब मनुज होता अकेला, ख़ुद को है पहचानता,
औरों की करुणा ठुकरा कर मान अपना जानता।

- रजत द्विवेदी








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मेरी पहचान

हिंद महासागर में उठता,कोई भीषण ज्वार हूँ मैं शंकर के डमरू में उठता महाप्रलय हुंकार हूँ मैं गंगा की निर्मल लहरों में जैसे मौज अपार हूँ मैं   नारायण का स्वयं मैं जैसे कोई रूप विस्तार हूँ मैं   दिनकर की रेशम किरणों का नभ में फैला हार हूँ मैं चाँद का चकोर हूँ,अगनित तारों का यार हूँ मैं   तुलसी का रघुबीर,मीरा का निश्छल प्यार हूँ मैं शंकर की कोई प्रतिमा या निर्गुण शिव जग का आधार हूँ मैं रणधीर समर में अडिग खड़ा वीरता की भरमार हूँ मैं रग रग में करता जैसा पौरुष का संचार हूँ मैं नरसी भगत सा प्रेमी हूँ,भक्ति का अनुपम सार हूँ मैं  सभी संवेदनों से भरा, खुद में ही संसार हूँ मैं -रजत द्विवेदी